प्रचलित समाज और शिक्षा-व्यवस्था में नैतिक मूल्य
स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत देश ने विविध क्षेत्रों में आशातीत भौतिक प्रगति की है। भौतिकता की चकाचौंध में भारत अपनी आध्यात्मिक अस्मिता खोता जा रहा है। जबकि भौतिक प्रगति में आकण्ठ डूबा अशांत पाश्चात्य जगत् भारत की ओर आशा की दृष्टि से देख रहा है। वर्तमान समाज एक संधि काल से गुजर रहा है। पुराने नैतिक एवं सामाजिक मूल्य समाप्तप्राय हो रहे हैं, किंतु नए मूल्य अभी स्थापित नहीं हो पाए हैं जिन्हें व्यवहार में उतारा जा सके। बिलडुरांड इस असमंजसपूर्ण स्थिति का सुंदर चित्रण करते हुए कहते हैं कि हमारे नैतिक मूल्यों में परिवर्तन के लिए उत्तरदायी कारक विविध हैं। खेत-खलिहानों का स्थान कारखानों ने और घरों का स्थान नगर की सड़कों ने ले लिया है। हमें आने वाली पीढ़ी के मनोभावों को समझना चाहिए। उनकी जीवनचर्या एवं समस्याएँ नई एवं भिन्न हैं। उनके रीति-रिवाज, उनकी पोशाक, कार्यशैली, धर्म-आचरण आदि में भारी परिवर्तन आया है। पुरानी मान्यताओं के आधार पर इनका मूल्यांकन करना असंगत एवं अनैतिहासिक होगा। ठीक वैसे ही जैसे किसी आधुनिक पुरुष को प्राचीन काल की पोशाक; जैसे—लँंगोटी, वल्कल अथवा पादत्राण धारण करने के लिए बाध्य किया जाए। देश में आज विकास की बड़ी-बड़ी योजनाएँ बन रही हैं, बजट बन रहे हैं, यह सब गरीबों के लिए बन रहे हैं। इन सबका गरीबी पर प्रभाव न पड़ना था, न पड़ा। उनके कारण कुछ लोग अमीर अवश्य हो गए। कुछ इतने आगे बढ़े जिनकी कल्पना उन्होंने सपने में भी नहीं की थी। बाकी की प्रगति कागजों तथा प्रतिवेदनों में हुई। आज आजादी के इतने वर्ष बाद भी हम एक सीमित वर्ग को ध्यान में रखकर अपनी उपलब्धियों का बखान कर लेते हैं। आई०आई०टी०, आई०आई०एम०, सिलिकॉन वैली, बंगलुरु, कॉल सेन्टर्स सभी कुछ आशा तथा प्रगति के प्रतीक बने हैं। गाँव में शिक्षित युवा वर्ग ऐसी शिक्षा लेकर बैठा है, जिसने उन्हें न तो कोई कौशल दिए, न ऐसी दिशा दी कि वे स्वयं ऐसा कुछ कर सकें जो आत्मसम्मान के साथ जीवनयापन का अवसर दे। इस सारे परिदृश्य में शिक्षा संस्थाओं का उचित योगदान ही दिशा-परिवर्तन करने की क्षमता रखता है।
“इस समय शिक्षा-व्यवस्था के सामने अनेक नई चुनौतियाँ उभर रही हैं। शिक्षा तथा विद्या के अंतर को आत्मसात् करना तथा उसके बाद समाधान खोजने के लिए सम्भावित प्रयासों के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक है।”
इस समय शिक्षा-व्यवस्था के सामने अनेक नई चुनौतियाँ उभर रही हैं। शिक्षा तथा विद्या के अंतर को आत्मसात् करना इन चुनौतियों को समझने तथा उसके बाद समाधान खोजने के लिए सम्भावित प्रयासों के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक है। ज्ञान समाज के लिए आवश्यक है जिससे कि हर व्यक्ति अपने ज्ञान तथा कौशल के उपयोग के सार्थक तथा स्वीकार्यलक्ष्य निर्धारित करे। शिक्षा बढ़ी है। सरकार साक्षरता के बढ़े हुए प्रतिशत पर गर्व करती है। यदि यह शिक्षा मूल्य-आधारित होती तो पंजाब, दिल्ली जैसे राज्यों में लड़के-लड़कियों के अनुपात का अंतर लगातार क्यों बढ़ता? क्या वह शिक्षा जो केवल बोर्ड की परीक्षा के अंकों को जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानती है, समाज में महिलाओं को सही स्थान तथा सम्मान दिलाने में पूरी तरह असफल सिद्ध हो रही है? अभी तक अनुभव यही दर्शाता है कि बिना मूलभूत परिवर्तनों को अपनाए यह संभव नहीं होगा। इस परिवर्तन में शिक्षा-व्यवस्था को भारत की साझी संस्कृति के मूल तत्त्वों को आत्मसात् करना होगा।
मूल्यों और नैतिकता जो शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है का सर्वत्र ह्नास हुआ है, हो रहा है। विज्ञापनों, समाचार पत्र-पत्रिकाओं में ऐसे-ऐसे नग्न चित्र छपते हैं, जिन्होंने नैतिकता का हरण कर दिया है। आजकल आदत से मजबूर कुछ माता-पिता समाचार-पत्र विक्रेता से समाचार-पत्र लेते हैं, परंतु (सप्लीमेंट) घर में नहीं लाने देते हैं। लेकिन टेलीविजन का क्या करें, ‘काँटा लगे’ का क्या करें, ‘यह तो साला काम से गया’ का क्या करें? ऐसे अनेक प्रश्न घरों में चर्चा में हैं। लोग अपने को असहाय और निरीह श्रेणी में लेते हैं, क्योंकि उनकी नई पीढ़ी के अनुसार वे समय से पीछे रह गए हैं।
आतंकवाद, हिंसा और विध्वंस की घटनाएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। दूसरों के धर्म तथा संप्रदाय को अपने से भिन्न मानने का जो अविवेकपूर्ण तथा असंगत तर्क है उससे सांप्रदायिक दंगे होते हैं और हमारी राष्ट्रीय एकता को क्षति पहुँचती है। इससे समाज के आर्थिक विकास को तो हानि पहुँचती ही है साथ ही सामाजिक एवं राष्ट्रविरोधी आंदोलनों से राष्ट्र को प्रतिवर्ष अरबों रुपयों की हानि होती है। इससे हमारे अन्य कल्याणकारी कार्य भी पीछे रह जाते हैं। इसका प्रमुख कारण है–औसत नागरिकों में आत्मानुशासन का अभाव, जिसके कारण वे समाज एवं राष्ट्र-विरोधी तत्त्वों के बहकावे में आ जाते हैं और अपने कत्र्तव्यों की उपेक्षा कर समाज एवं राष्ट्र को क्षति पहुँचाते हैं।
धर्म के दो पक्ष होते हैं–दमन एवं मुक्ति। धर्म में एक आस्था प्रणाली सम्मिलित होती है जो मस्तिष्क को उत्प्रेरित करती है। समर्पण होता है, जो हृदय को स्पर्श करता है तथा कर्मकांड व आचारशास्त्रीय मानकों की एक व्यवस्था होती है जो जीवन के आचरण को निर्धारित करती है। धर्म आंतरिक शांति, स्वतंत्रता, सहिष्णुता, ईश्वर के प्रति समर्पण व प्रार्थनाभाव को सुदृढ़ बनाते हुए मानव को मुक्ति मार्ग की ओर अग्रसर करता है।
मूल्यों के अभिरक्षण एवं उनकी पुन:प्रतिष्ठा के लिए यह आवश्यक है कि हम अपनी कथनी और करनी में उचित समन्वय स्थापित करें। इससे आगामी पीढ़ी तो दिग्भ्रान्त होने से बचेगी ही साथ ही हम स्वयं को भी अधिक आस्थावान एवं निष्ठावान अनुभव करेंगे। गांधीजी हमसे यही अपेक्षा रखते थे कि अंतरात्मा की आवाज के पवित्र नियम के प्रति आस्थावान रहें, जिसे मनुष्य ने नहीं बनाया, लेकिन जो अलिखित होकर लिखित कानूनों से किसी तरह कम नहीं है। अंतरात्मा की यह आवाज युगों से बनाए गए सभी आचरण तथा नियमों का उत्स रही है। यही नैतिक नियम मानव-परिवार के सदस्यों को बाँधकर रखता है और उन्हें संपूर्ण मानव-परिवार की सुरक्षा और सुख के प्रति एक नए दायित्व का बोध कराता है। स्वानुभूत होकर ही हम दूसरों के हितों की रक्षा भली-भाँति करते हैं।
शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य नए ज्ञान-विज्ञान के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करना है। वह जीवन-मूल्यों के अनवरत शोध और परीक्षा की प्रेरणा तथा प्रवृत्ति है। शिक्षा भविष्य में उठ सकने वाली समस्याओं का निराकरण भी है और उनकी शक्ति और संभावनाओं के उपयोग की क्षमता भी, सही उपयोग करने का विवेक भी है, कल्पना भी, सृजन भी, मूल्यांकन भी और जानकारियों के नीचे न दब जाने का संकल्प भी। वह आस्था भी है जो स्वार्थ-बुद्धि से आक्रांत होकर परमार्थरत निष्ठा का रूप ले सके। इस तरह शिक्षा और उसकी सृजनशीलता जीवन का समग्र बिंब निर्माण करने में विशेष रूप से सहायक होती है।
आज के युग में मूल्य शिक्षा का उपयुक्त साधन विद्यालय है। इसके लिए समाज पर निर्भर रहना उचित नहीं है। आज अधिकांश समय छात्र विद्यालय की अपेक्षा समाज में ही व्यतीत करता है, और आज का समाज पूर्णत: भ्रष्ट हो चुका है। विद्यालय में अध्यापक छात्रों को ईमानदारी का पाठ सिखाता है, तो घर पर पिता को वह रिश्वतखोरी व बेईमानी की पूजा करते देखता है, ऐसी स्थिति में उसके मन में द्वंद्व चलता है कि सत्य क्या है? इससे निराश नहीं होना चाहिए। शिक्षक यदि कटिबद्ध हो जाए तो आज नहीं तो कल, आदर्श नागरिक पैदा करके आदर्श समाज की रचना में सफलता अवश्य मिलेगी।
हमारे मूल्यों के विघटन के लिए आधुनिकता बहुत अधिक हद तक उत्तरदायी है। आधुनिक युग में तीव्र संचार साधनों के कारण स्थानों की दूरियाँ सिमट गयीं। दूरस्थ व्यक्तियों के बीच बाह्य संवाद सर्वथा सुगम हो गया है। आज का मानव पहले की तुलना में अधिक आत्मनिर्भर और आत्मकेंद्रित हो गया है। मानव-मानव के बीच के रागात्मक संबंध प्राय: समाप्त हो गए हैं। यदि आधुनिक समाज में आत्मानुशासन के मूल्य को सावधानीपूर्वक आत्मसात् किया गया होता तो सम्भवत: मूल्यों का इस सीमा तक विघटन न हुआ होता। वैज्ञानिक युग में विज्ञान ने प्रकृति पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है। अत: प्रकृति भी मानो जड़ साधन बनकर रह गई है। आध्यात्मिकता से दूर हटता मानव अब देही (देह का स्वामी) न रहकर देहमात्र रह गया है। इसी देह की सुख-सुविधा हेतु विज्ञान ने विविध साधन जुटाए हैं, जिनके अधिकाधिक उपभोग की लालसा मानव को भ्रान्त-अशांत किए हुए हैं, क्योंकि तृष्णा (भौतिक विषयों के प्रति आसक्ति) कभी बूढ़ी नहीं होती, मनुष्य बूढ़ा हो जाता है। मानव भौतिक उपभोग का भोग नहीं करता अपितु एकात्मिक भोग पतनोन्मुख बना देते हैं। मशीन के द्वारा मानव का यांत्रिक विकास हुआ है, हार्दिक विकास नहीं। उसकी क्रियाशीलता बढ़ी है, चेतना नहीं। उसके सामाजिक आचार-व्यवहार यंत्रवत् होते जा रहे हैं, उसमें रागात्मकता का अभाव दिखाई देता है। आज सर्वप्रथम हमें यह निश्चित करना होगा कि हम शिक्षा में मूल्यों को लाना चाहते हैं या मूल्यों के आधार पर शिक्षा को निर्मित करना चाहते हैं। दोनों में मूलभूत अंतर यह है कि शिक्षा में मूल्यों को लाने का तात्पर्य वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था को ज्यों-का-त्यों स्वीकार करते हुए उसमें कतिपय मूल्यों को गुम्फित करने हेतु प्रयास करना है। मूल्य-आधारित शिक्षा के निर्माण का औचित्य तभी हो सकता है जब हम वर्तमान शिक्षा पद्धति को पूरी तरह नकारते हुए अपनी कोई मौलिक शिक्षा विधि का निर्माण करें। विकास का पश्चिमी मॉडल आज वैश्विक अर्थव्यवस्था के नाम पर उस बाजारवाद को बढ़ावा दे रहा है, जिसमें भौतिक साधनों का अधिकाधिक संचय व उपभोग मनुष्य जीवन का पहला और अंतिम लक्ष्य बना दिया गया है। वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था में संशोधन, संवद्र्धन कर कुछ मूल्यों को टाँक देने से कतई काम चलने वाला नहीं है। इसकी बजाय अच्छा यह होगा कि हम ऐसे मूल्यों पर आधारित अपनी शिक्षा पद्धति का निर्माण करें जो मनुष्य को न केवल आध्यात्मिक, मानसिक व शारीरिक रूप से उदात्त बनाए बल्कि पश्चिमी विकास की उस अवधारणा पर मरणान्तक प्रहार करे जो बाजारी शक्तियों के सामने आत्मसमर्पण करने के लिए विवश करती है। मूल्य युग-परिवर्तन के साथ बदलते रहे हैं। वर्तमान वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी-प्रधान युग में शिक्षा के प्रसार के बावजूद जीवन-मूल्यों में ह्रास दिखाई दे रहा है। मूल्य-आधारित जीवन-शैली को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि विद्यालयों में मूल्यों के विकास हेतु विशिष्ट व संगठित प्रयत्न किए जाएँ। समय व काल की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए दार्शनिकों व अन्य विद्वानों ने विविधि प्रकार के मूल्यों को निश्चित किया है।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् शिक्षा में वांछित सुधार लाने के लिए अनेक प्रकार की विचारधाराएँ समय-समय पर प्रस्तुत की गयीं। मूल्यपरक शिक्षा के अंतर्गत शिक्षा द्वारा विविध नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना का उद्देश्य रखा गया है। नैतिकताविहीन शिक्षा आत्मरहित शरीर के सामने हैं। सभी धर्मग्रंथ मनीषियों एवं महापुरुषों की शिक्षाएँ आदि हमेशा से इस दिशा में हमारा समुचित मार्गदर्शन करते रहे हैं। जीवन-मूल्यों की पुन:प्रतिष्ठा समय की माँग है। इस हेतु अभिभावक, शिक्षक, राजनेता, समाज-सुधारक आदि सभी का इस दिशा में सहयोग वांछित ही नहीं अपितु अनिवार्य भी है।
प्रत्येक राष्ट्र का अपना विशिष्ट सांस्कृतिक मानस होता है, जिसका निर्माण सदियों के संस्कारों और परंपराओें के पालन से होता है। शिक्षा यद्यपि व्यक्ति के मनोजगत् का भावात्मक प्रतिबिंब है, तथापि वह व्यक्ति—मन का नहीं अपितु इसी राष्ट्रीय मानस की अभिव्यक्ति होता है। जो शिक्षा साहित्य अंधानुकरण की स्पर्धा में इस मानस से दूर हो जाती है, वह प्रयोग, चमत्कार, नूतनता आदि की दृष्टि से सराहनीय होकर भी राष्ट्र की स्थायी निधि नहीं बन सकती। आजकल प्रकृतिवाद, यथार्थवाद, फ्रायडवाद आदि की मान्यताओं को स्वीकार करके पाश्चात्य प्रवृत्तियों का जो अंधानुकरण किया जा रहा है उससे शिक्षा के महनीय उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती, वहीं शिक्षा वरणीय एवं राष्ट्र की स्थायी निधि हो सकती है, जिसकी आत्मा सत्यानुप्राणित हो।