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हमारे जीवन में योग का महत्त्व

योग एक आदर्श जीने की कला है। एक वैज्ञानिक पद्धति है। एक सुख का आधार है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक उन्नति का सार है। योग एक दर्शन है। यह जीवन को समग्र रूप से देखने की दृष्टि देता है।
‘‘धर्मार्थ काम मोक्षाणाम् आरोग्य मूल उत्तमम् ’’
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का मार्ग आरोग्यता ही प्रशस्त करती है। आरोग्यता का मूल मन्त्र योग ही है। योग केवल योगासनों का नाम नहीं है। महर्षि पतंजलि महाराज के अनुसार, यम-नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि योग के अन्तर्गत आते हैं। योग की अन्तिम सीढ़ी समाधि है। योग साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए हमें सबसे पहले यम-नियमोें का पालन करना होगा। यह योग प्रथम-द्वितीय सीढ़ी है, जिसके द्वारा ही आप योग में समाधि पर पहुँचकर जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। सबसे पहले यम पर विचार करते हैं जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह योग के परमलक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सबसे पहले हिंसा के भाव को तन-मन-धन से छोड़कर अहिंसा को अपनाना पड़ेगा। सत्य ही परम पितास्वरूप है। योगी सत्य भाव पूर्ण तथा पूर्णतया जीवन में अपनाना होगा। अस्तेय का अर्थ है–दूसरे के पदार्थों को न लेना अर्थात् चोरी न करना, ये भी मानसिक, वाचिक और कामिक रूप से त्याग न करना परद्वयेषु अनमिध्यानम् दूसरे के पदार्थों पर ध्यान न देना। ब्रह्मचर्य, यम का चौथा अंग है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं जीवन का आधार है। भाषाकार व्यास जी ने लिखा है, ‘‘ब्रह्मचर्य गुप्तेन्द्रियस्योप स्थस्य संयम अर्थात् गुप्तेन्द्रियों पर संयम रखना ही ब्रह्मचर्य है।’’

प्राणायाम करने से समस्त शरीर दोष डीटोक्स तत्त्व नष्ट होकर शरीर रोगरहित होकर निरोग हो जाता है। ध्यान में मन लग जाता है। सुख और शान्ति की प्राप्ति हो जाती है।

चतसत्रोअवस्था—शरीर वृद्धि मौतमं सम्पूर्णता किश्चितपरिहा-विश्चेती। इस शरीर की चार अवस्थाएँ हैं। पहली 16 से 25 वर्ष तक होती है। इसी अवस्था में सभी धातुओं की वृद्धि होती है। दूसरी अवस्था यौवन 26वें वर्ष से प्रारम्भ होती है। तीसरी अवस्था सम्पूर्णता जो 40 वर्ष तक रहती है। इस अवधि में सभी धातुओं की पुष्टि होती है। चौथी अवधि परिहाणि अर्थात् सम्पूर्णता के बाद धातुओं का बाहर जाना प्रारम्भ हो जाता है। यह समय विवाह के लिए उत्तम है। पाँचवाँ अपरिग्रह अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों-कर्मेन्द्रियों के विषयोंरूपी योगी को इकट्ठा करना, उनको स्थिर करना, उनको विचार करके उन्हें बुद्धि, वचन, कर्म से स्वीकार न करना ही अपरिग्रह है। इसी प्रकार नियमों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। शौच, सन्तोष, पत, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधानमिनमि। इन पर भी सभी को मनका वाचा कर्मणा से पालन करना है।
तीसरा ‘‘आसन’’, आसनों के द्वारा शरीर को सुडौल लचीला बनाना/ स्थिर सुखासन स्थिर, बिना हिले-डुले आराम से और सुखपूर्वक आसनों को करने से अनेक रोगों से मुक्ति मिल जाती है। अन्य व्यायामों और योगासनों में बहुत अन्तर है। योगासनों को करने में मन को एकाग्र करना पड़ता है।

योगरचित वृत्ति निरोध–चित्त की वृत्ति को रोककर मन को योग की क्रिया में लाना ही योग है।
“प्राणायाम श्वास प्रश्वासयो: गतिविच्छेद: प्राणायाम”
अर्थात् प्राण की स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास को रोकना प्राणायाम है। ‘प्राणं नै जीवनम्’ प्राण ही जीवन है। प्राणायम के अभ्यास से रोग निवारण शक्ति बढ़ती है। मन की एकाग्रता होती है। दहन्ते धमायमाननाम् धातुनाम् ही यथा मला: तथेन्द्र्रयाणाम दहन्ते दोशाप्रणस्य निग्रहात। जैसे–लोहा, सोना, चाँदी पर जर लगने पर, अग्नि में डालने से समस्त जर और गन्दगी दूर होकर चमकता है, इसी प्रकार से प्राणायाम करने से समस्त शरीर दोष डीटोक्स तत्त्व नष्ट होकर शरीर रोगरहित होकर निरोग हो जाता है। ध्यान में मन लग जाता है। सुख और शान्ति की प्राप्ति हो जाती है।

प्रत्याहार–जब इन्द्रियाँ अपने बाह्य विषयों से अलग होकर अंतर्मुखी वृत्ति को जाती हैं, उस अवस्था को प्रत्याहार कहते हैं। प्रत्याहार की सिद्धि से साधक को इन्द्रियों पर अधिकार, मन की निर्मलता, देह की वृद्धि, दीनता का क्षय, शारीरिक आरोग्य एवंं समाधि में प्रवेश की क्षमता प्राप्त होती है।

देवभूमि हरिद्वार अवस्थित गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षित एवं प्रशिक्षित योगीराज डॉ० विश्वपाल जयन्त अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त अध्यात्मदर्शी हैं। योग और आयुर्वेद के गुरु विश्वपाल जयन्त को पूर्व राष्ट्रपति वी०वी० गिरि सन् 1968 में ‘आधुनिक भीम’ की उपाधि से अलंकृत कर चुके हैं। सोलह वर्ष की अल्पायु में ही ब्रह्मचारी जयन्त हाथी बाँधने वाली मोटी फौलादी जंजीरों को तोड़ने लगे थे। किशोरावस्था में छाती पर से ट्रैक्टर उतरवाने, मोटे सरियों को मोड़ने तथा उनकी चूड़ियाँ बनाने के उनके अद्भुत करतबों से जनसमूह विस्मृत रह जाता था। 2 जुलाई , 1972 को योगीराज ने राज्य उत्तराखण्ड के कोटद्वार के निकट महर्षि कण्व की तपस्थली कण्वाश्रम में मालिनी नदी के तट पर ‘वैदिक आश्रम गुरुकुल महाविद्यालय’ की स्थापना की, जहाँ छात्रों को संस्कृत, हिन्दी और अंगे्रजी में शिक्षा प्रदान की जाती है। महाकवि कालिदास की काव्यस्थली, ध्यान, साधना एवं स्वास्थ्य के लिए उत्तम और प्राकृतिक सौन्दर्य की अनुपम छटा से युक्त यह कण्वाश्रम दर्शनीय स्थल है। इसी पवित्र स्थल पर एक ‘नेचुरल हेल्थी वेली’ भी है जो योगसाधना तथा आयुर्वेदिक उपचार के लिए देश-देशांतर तक प्रसिद्ध है। बहुधा योगीराज भारत देश के बाहर नेपाल, कनाड़ा, जापान, संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, हॉलैण्ड, इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा स्विट्जरलैण्ड में भारतीय संस्कृति, अध्यात्म व योग के प्रचार एवं प्रसार हेतु आमन्त्रित किए जाते हैं।

यम-नियम, आसन, प्राणायाम के अभ्यास से साधक का शरीर शुद्ध और स्वस्थ हो जाता है। मन और इन्दियाँ शांत हो जाती हैं। उनमें एकाग्रता आ जाती है। परम पिता परमात्मा की शक्ति का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार इस अभ्यास से प्रत्याहार के लिए सुदृढ़ भूमिका तैयार हो जाती है।

धारणा–किसी भी विषय में अर्थात् हृदय भृकुटि, जिह्वा, नासिका आदि आध्यात्मिक प्रदेश तथा इष्ट देवता की मूर्ति आदि बाह्य विषयों में चित्त लगा देने को धारणा कहते हैं। यम-नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार के अभ्यास के पश्चात् यह कार्य सरलता से होता है। विक्षिप्त चित्त वाले साधक का धारणा में स्थिर होना बहुत ही कठिन है। जिन्हें धारणा का बल बढ़ाना है उनको आहार-विहार में नियमितता, संयम रखना चाहिए। नियमित रूप से ठीक समय पर अभ्यास करना चाहिए।
ध्यान–तत्र (प्रत्येक तान) ध्यानम् (ध्यान में) चित्तवृत्ति का एकरूप बना रहना ही ध्यान है, अर्थात् जब साधक ध्यान करता है उस समय बाह्य वृत्तियाँ शान्त होकर अन्तर्मुखी वृत्ति हो जाती है।
जिस भी चक्र पर साधक ध्यान करता है, प्रारम्भ से अन्त तक एक ही वृत्ति बनना ध्यान कहलाता है। निरन्तर ध्यान करते रहने से नाद-अनहद शब्दों का श्रवण होना प्रारम्भ हो जाता है। जब साधक का अभ्यास और वैराग्य निरन्तर बढ़ता रहता है तो दिखाई देने लगती है।
समाधि–यह योग की अन्तिम सीढ़ी है, अर्थात् योग की अन्तिम अवस्था है। तदे वार्थ मात्र निम्रासं स्वरूप शून्य मिव समाधि: वह ध्यान जिसमें केवल अर्थमात्र, पदार्थ मात्र, ध्येय मात्र की प्रतीती होती है। ध्यान अर्थात् साधक अपने स्वरूप से शून्य-सा हो जाता है, वह समाधि है। वह ध्यान जिसमें अर्थ की प्रतीती एकरस बनी रहे, परिपक्व अवस्था अपनी चरम सीमा पर होने पर निरन्तर ध्यान करने पर समाधि अवस्था आ जाती है। धारणा, ध्यान, समाधि–इन तीनों समुदायों को योगशास्त्र में संयम कहा गया है। अनुभवी साधकों के अनुसार योग की परिपक्वावस्था में केवल ध्येय में ही शुद्ध सात्त्विक प्रवाहरूप से बुद्धि स्थिर हो जाती है, उसमें प्रज्ञा लोक और ज्ञान ज्योति का उदय होता है।
योग में षट्कर्म–शरीर को शुद्ध करने के लिए छह क्रियाएँ हैं। शरीर को शुद्ध, सुन्दर, स्वस्थ बनाने के लिए षट्कर्म का विशेष स्थान है। आयुर्वेद के अनुसार समदोष समाडन्श्यि समधातु मल क्रिया प्रशान्त्मनेन्द्रम मन एवं स्वस्वथं इत्यमिधीपते वात, पित्त, कफ समान होना, भूख का ठीक समय ठीक लगना, रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा, शुक्र, वीर्य, ओज का ठीक प्रकार से बनना, मल आदि क्रिया का समय पर ठीक समय से होना, मन-इन्द्रियों के खुश रहने पर भी मनुष्य स्वस्थ कहा जाता है। स्वस्थ रहने के लिए आयुर्वेद में पंचकर्म योग में षट्कर्म का विधान है। षट्कर्म में धोति, नेति, नौली, बस्ति, त्राटक, कपालभाति का अभ्यास गुरु की देखरेख में आरम्भ करें।

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