Education

आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान का जन्मदाता है

आयुर्वेदिक चिकित्सा की पद्धति विषम चिकित्सा (एलोपैथी) से भिन्न है। प्रकृति की हर प्रघटना के पीछे कारण–परिणाम सम्बन्ध होता है अर्थात् कोई भी घटना या तो कारण से प्रभावित होती है या फिर परिणाम से।

वैसे तो चिकित्सा की उस पद्धति को श्रेष्ठ माना गया है जो बीमारी से पीड़ित आदमी को बिल्कुल भला-चंगा कर दे। प्रश्न यह नहीं है कि चिकित्सा की कौन-सी पद्धति अपनायी गयी और उसमें क्या औषधि प्रयोग की गयी? सच्चा मानदण्ड तो रोग से नि़जात पाना है। उपचार का उपाय प्रसिद्ध और अनुभवी चिकित्सक द्वारा सुझायी गयी एक मूल्यवान औषधि हो सकती है तथा साधु-संत की दी हुई कोई राख की चुटकी भी। कुछ भी सही, व्यक्ति का स्वास्थ्य रक्षण चिकित्सा का असली उद्देश्य है। आयुर्वेद भारत के ऋषि-मुनियों के ज्ञान, शोघ एवं अनुभूतियों का चिकित्सा शास्त्र है।

भारत की सुप्राचीन चिकित्सा पद्धति

‘आयुर्वेद’ मानव-सभ्यता की प्राचीनतम लिखित चिकित्सा पद्धति है। आयुर्वेद शब्द दो शब्दों ‘आयुर्’ तथा ‘वेद’ से मिलकर बना है। ‘आयुर्’ का अर्थ है—जीवन और ‘वेद’ का अर्थ है—विज्ञान। अत: जीवन सम्बन्धी विज्ञान का रूप ही आयुर्वेद है। यह विज्ञान मनुष्य मात्र एवं चिकित्सकों को मानवता के लिए विस्तृत दृष्टिकोण प्रदान करता है। सभी को सुन्दर स्वास्थ्य मिले, आयुर्वेद के इस मूलमंत्र को हमारे मनीषियों ने इस प्रकार कहा है—

सर्वे भवन्तु सुखिन: ।
सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ।
मा कश्चिद दु:ख भाग्भवेत्।।

(सभी सुखी हों, सबको सुन्दर स्वास्थ्य मिले। सभी एक दूसरे को कल्याण की दृष्टि से देखें और कभी भी किसी को किसी प्रकार का दु:ख न हो।)
आयु से अभिप्राय है शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा का संयोग और जिस शास्त्र से आयु का ज्ञान एवं उसकी प्राप्ति होती है, उसे सरल शब्दों में ‘आयुर्वेद’ कहा जाता है। विद्वानों का कथन है कि जिस शास्त्र के माध्यम से आयु का हित, अहित, रोग का निदान तथा शमन होता हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं-

आयुर्हिताहितं व्याधि निदानं शमनं तथा।
विद्यते यत्र विद्वद्भि: स आयुर्वेद उच्यते।।

आयुर्वेद की विशेषताएँ

आयुर्वेद किसी समाज, राष्ट्र, धर्म और संस्कृति विशेष के साथ सम्बन्धित नहीं रहता। इसका लक्ष्य विश्व के हर एक प्राणी का कल्याण करना है। इस विज्ञान के अन्तर्गत प्रकृति के मूल स्रोत वनस्पतियों का गहरा एवं व्यापक अध्ययन किया जाता है।
आयुर्वेदिक चिकित्सा की पद्धति विषम चिकित्सा (एलोपैथी) से भिन्न है। प्रकृति की हर प्रघटना के पीछे कारण –परिणाम सम्बन्ध होता है अर्थात् कोई भी घटना या तो कारण से प्रभावित होती है या फिर परिणाम से। आयुर्वेद चिकित्सा में रोग के कारण का इलाज किया जाता है जब कि एलोपैथी का सिद्धान्त परिणाम के आधार पर है। इसका अभिप्राय है कि एलोपैथी में परिणाम (फूल-फल को ध्यान में रखकर) के आधार पर इलाज किया जाता है किन्तु आयुर्वेद में कारण (रोग की जड़ की समाप्ति) के आधार पर इलाज होता है।
आयुर्वेद में वस्तुत: रोग के लक्षणों के आधार पर नहीं, बल्कि व्यक्ति के मन, शरीर व आत्मा को दृष्टि में रखते हुए पूर्ण व्यक्तित्व के रोगों की अवस्था का निदान करके चिकित्सा की जाती है। इस चिकित्सा पद्धति में औषधि के सेवन से किसी भी प्रकार के कुप्रभाव की आशंका नहीं रहती है। यहाँ उन भोज्य व पेय पदार्थों के सेवन पर अधिक बल दिया जाता है जो स्वयं में सम्पूर्ण भोजन हैं; जैसे—दूध व आँवला इत्यादि। यह पद्धति रोग से बचने के उपायों पर विशेष रूप से बल देती है। इसकी मान्यता है कि उचित व संयमित आहार लेने वाले रोगी को औषधि की आवश्यकता ही नहीं होती। आयुर्वेद चिकित्सक व्यक्ति की प्रकृति, शारीरिक बल तथा आयु को प्राथमिकता देते हैं और इन्हीं के आधार पर रोग का निदान करके चिकित्सा करते हैं। आयुर्वेद योगाभ्यास का समर्थक है और इसमें पूर्णत: सहायक सिद्ध होता है। इस पद्धति के अन्तर्गत रोग निदान के उपाय भी सरल हैं। नि:सन्देह आयुर्वेद चिकित्सा की पद्धति कुल मिलाकर रोगों की सम्पूर्ण चिकित्सा है जो एलोपैथी से सस्ती और बेहतर चिकित्सा प्रणाली है।

इतिहास के झरोखे से आयुर्वेद

आयुर्वेद आधुनिक समय में प्रचलित एवं उपलब्ध समस्त प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों में सर्वाधिक असरदार पद्धति है इसकी वास्तविक उत्पत्ति प्राय: सात हजार वर्ष पूर्व भगवान सदाशिव के काल में हुई थी। कुछ विद्वानों के मतानुसार, यह चिकित्सा प्रणाली तीन हजार वर्ष पूर्व प्रचलन में आई और समाज-सेवा का स्वीकृत अंग बन गयी। आयुर्वेद एक स्वतन्त्र भारतीय चिकित्सा प्रणाली है जो शनै:-शनै: समूचे संसार द्वारा अपनायी गयी।
जनश्रुतियों के अनुसार, आदिकाल में आयुर्वेद का सार-सर्वस्व लेकर मानव-जाति की रक्षा तथा रोगों के विनाश हेतु ‘ब्रह्म संहिता’ नामक ग्रन्थ की रचना हुई जिसमें एक लाख श्लोक समाहित थे। दक्ष प्रजापति ने स्वयं अध्ययन करके अश्विनी कुमारों को दीर्घ आयु का यह वेद समझाया। इसी शृंखला में महर्षि भारद्वाज ने पृथ्वीवासी ऋषिगण तथा साधु सन्तों को आयुर्वेद की विधिवत् शिक्षा दी।
ईसा से 800 वर्ष पूर्व पुनर्वसु एवं आत्रेय ऋषि ने विधिवत् कक्षाएँ चलाकर अपने शिष्यों को आयुर्वेद पढ़ाया। उसी काल में आयुर्वेद का मूल ग्रंथ ‘आत्रेय संहिता’ लिपिबद्ध किया गया था। ईसा से लगभग 180 वर्ष पहले चरक ऋषि ने आत्रेय संहिता की फिर से नये सिरे से रचना की जिसका नाम ‘चरक संहिता’ पड़ा। चरक सहिंता में रोग के कारणों, लक्षणों एवं अन्य बहुत-सी आवश्यक बातों का विस्तार से वर्णन किया गया है। चरक ऋषि का मत है कि शरीर में वायु, पित्त तथा कफ के असन्तुलन के परिणामवश रोग जन्म लेते हैं। कालांतर में ईसा से 600 वर्ष पूर्व की रचना सुश्रुत संहिता है जिसमें जटिल रोगों की चीर-फाड़ (सर्जरी) का विवेचन है। शारीरिक ज्ञान के लिए ‘सुश्रुत संहिता’ और चिकित्सा कार्य हेतु ‘चरक संहिता’ सर्वोत्तम ग्रन्थ माने गये हैं। आयुर्वेद चिकित्सा का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘अष्टांग हृदय’ को वाग्भट ने चरक एवं सुश्रुत का अध्ययन करके तैयार किया था। इसके उपरान्त बंगसेन का ‘बंगसेन’ नामक ग्रन्थ, माधवाचार्य का ‘माधव निदान’, भाव मिश्र का ‘भाव प्रकाश’ और शारंगधर का ‘शारंगधर संहिता’ नामक आयुर्वेद ग्रन्थ परीक्षित योगों (स्वयं रोगियों पर आजमाये हुए नुस्खों) पर आधारित है।

आयुर्वेद की मान्यताएँ

बीमारी के सन्दर्भ में रोग के आक्रमण के साथ उन परिस्थितियों को जानना भी आवश्यक है जिनकी वजह से शरीर में रोग के कीटाणु प्रवेश कर जाते हैं। रोग के लक्षणों में से कुछ छिपे रहते हैं तो कुछ लक्षण उभर आते हैं लेकिन इन लक्षणों की पहचान व कारणों का ज्ञान होना बहुत जरूरी है। इसके अलावा शारीरिक विकृतियों का विश्लेषण और रोगी की पारिवारिक बीमारियों की समुचित जानकारी भी अध्ययन का विषय होते हैं। इसी को लेकर आयुर्वेद की कुछ प्रमुख मान्यताओं का संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण निम्नवत् है—

  • आयुर्वेद की सर्वमान्य धारणा है कि मनुष्य के शरीर की उत्पत्ति पाँच पदार्थों/तत्त्वों से हुई है—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश।
  • भोजन के बाद शारीरिक क्रियाएँ उसे तोड़ना शुरू कर देती हैं। भोजन का स्वाद उसके रस की प्रकृति पर निर्भर करता है। मीठा भोजन रक्त,मांस, वसा, हड्डी, वीर्य और शक्ति पैदा करता है। मीठे पदार्थों की प्रवृत्ति ठण्डी, भारी व नम होती है।
  • भोजन में खट्टे पदार्थों से पाचन शक्ति बढ़ती है। ये शरीर की क्रियाओं को तेज करते हैं और वात (गैस) को दूर करते हैं। नमकीन पदार्थ भी वात को दूर करने और कफ पैदा करने की प्रकृति रखते हैं। खाने के बाद यानी पाचन क्रिया के दौरान पदार्थों का गुण बदल जाता है।
  • आयुर्वेद का मत है कि मनुष्यों के सभी रोगों की जड़ उदर सम्बन्धी विकार होते हैं। भोजन करते समय मुख में होने वाली क्रियाओं की वजह से कफ बनता है जिसमें आगे चलकर विभिन्न प्रकार के शारीरिक द्रव मिल जाते हैं जिससे पित्त बनता है। अन्त में, भोजन से सभी लाभकारी पदार्थ सोख लिये जाते हैं जिसके बाद वात (गैस) पैदा होती है।
  • पाचन प्रक्रिया के दौरान भोजन से उत्पन्न आहार रस से रस नामक धातु, धातु से रक्त, रक्त से मांस, वसा, अस्थि, अस्थि- मज्जा, वीर्य तथा ओज बनते हैं। इस भाँति, शरीर के लिए आवश्यक व उपयोगी भोजन के भाग से प्रसाद तथा अनुपयोगी भाग से मल पदार्थ (मलमूत्र, पसीना व नाखून आदि) निर्मित होते हैं।
  • आयुर्वेद के ‘त्रिदोष’ सिद्धान्त के आधार पर कफ, पित्त या वात के असन्तुलन के कारण रोग उत्पन्न होते हैं। इन तीनों में से किसी भी एक की प्रधानता या कमी से रोग उत्पन्न होता है।
  • कफ आमाशय में पैदा होता है जो शरीर को नम रखता है। कफ से पाचनशक्ति, रक्तसंचार, हृदय की सामान्य गति, संवेदनशीलता, स्मरणशक्ति, हाथ-पाँवों की पेशियाँ, शरीर के जोड़ों को प्राकृतिक रूप में कार्य करने की ऊर्जा-प्राप्ति, भूख तथा मल-मूत्र विसर्जन इत्यादि प्रकार्य नियन्त्रित होते हैं।
  • पित्त आमाशय और बड़ी आँत के मध्य पैदा होता है जो शरीर की गर्मी बनाये रखने में उपयोगी है। भोजन के पाचन के उपरान्त उससे रस उत्पन्न करने का कार्य पित्त से ही होता है। यह यकृत की सक्रियता, गुर्दों व पचे भोजन से उपयोगी तत्त्वों का अवशोषण, हृदय की धड़कन, त्वचा की रंगत तथा नेत्रों की ज्योति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • वात अर्थात् वायु श्वसन क्रिया, शरीर से अशुद्ध पदार्थों का विसर्जन, भोज्य पदार्थों को मुख से आमाशय और वहाँ से मलद्वार तक ले जाने का कार्य करता है। वायु के पाँच प्रकार हैं जो शरीर के अलग-अलग अंगों में रहने की वजह से पृथक्-पृथक् नामों से जाने जाते हैं।
  • आयुर्वेद के अनुसार आयुर्वेदिक औषधियाँ शरीर पर पाचन तंत्र के माध्यम से प्रभाव डालती हैं। यही कारण है कि आयुर्वेदिक चिकित्सा के अन्तर्गत चिकित्सकगण खाने-पीने पर अत्यधिक संयम तथा नियन्त्रण रखने के निर्देश देते हैं।
  • आयुर्वेदीय मान्यता के अनुसार कफ, पित्त एवं वात की गड़बड़ियों से पैदा हुए विकारों को औषधियों के नियमित सेवन तथा परहेज द्वारा ठीक किया जा सकता है।

आयुर्वेद विज्ञान प्राचीन समय से भारतीय संस्कृति का अविभाज्य अंग रहा है। आध्यात्मिकता से अभिप्रेरित इसका उद्देश्य व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा से जुड़ा है। आयुर्वेद की स्वास्थ्य भावना, मानव-जीवन के चारों पुरुषार्थों—धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षप्राप्ति को केन्द्रित करती है। चिकित्सा की यह पद्धति रोगों को समूल नष्ट करने का सतत प्रयास करती है। स्वास्थ्य व्यक्ति को प्रसन्नता देता है। तनाव, चिंता, निराशा तथा हताशा का परित्याग कर व्यक्ति बल, सौन्दर्य और धन अर्जित करता है। व्यक्ति को सिर्फ धनोपार्जन से स्थायी सुख नहीं मिलता, धनोपार्जन तो अनेक साधनों के माध्यम से किया जाता है। कहा गया है—’उत्तम सुख निरोगी काया’ अर्थात् स्वस्थ शरीर में मनुष्य का श्रेष्ठ श्रेणी का सुख निहित है और व्यक्ति को दीर्घायु वाला यह सुख आयुर्वेद से प्राप्त होता है।
पढ़ाई-लिखाई के बाद देश की युवा शक्ति जीवन निर्वाह के लिए रोजगार की खोज में प्राणपण से जुटती है। आयुर्वेद में व्यवसाय की पूरी सम्भावनाएँ निहित हैं। यह युवा पीढ़ी को रोजगार, यश, सम्मान, जन सेवा, देशभक्ति, राष्ट्रीयता सभी कुछ उपलब्ध कराने में समर्थ है। नौकरी न मिलने पर आयुर्वेद चिकित्सक अपनी क्लीनिक प्रारम्भ कर जनता की सच्ची सेवा कर सकते हैं।

स्वामी भास्करानन्द आयुर्वेद शोध संस्थान, थानो जनपद देहरादून (उत्तराखण्ड) के अन्तर्गत हिमालय की उपत्यका में स्थित सुन्दर आरोग्यशाला है। इस संस्थान में स्वामी भास्करानन्द के निर्देशन में समस्त रोगों के निदान एवं उपचार सम्बन्धी शोध-कार्य संचालित होते हैं। यहाँ कई अनुभवी आयुर्वेद चिकित्सक तथा फार्मेस्यूटिकल्स कैंसर जैसी गम्भीर बीमारियों के निवारण हेतु अथक कर्मसाधना में रत हैं। यह आरोग्य संस्था छोटे-मोटे शारीरिक विकारों के उपचार से लेकर कायाकल्प सदृश चमत्कारी प्रकल्पों का संचालन करती है।
स्वामी भास्करानन्द की जीवनगाथा काफी अनूठी है। शोध संस्थान की स्थापना से पूर्व उनका नाम भानुप्रकाश सिंह था जो उत्तर प्रदेश के पुलिस विभाग में आजीवन सेवारत रहे। सिंह साहब सन् 2013 में लम्बी सेवा के बाद डी०एस०पी० के पद से मुक्त हुए। उल्लेखनीय रूप से वे पुलिस में सेवाकार्य के इच्छुक नहीं थे किन्तु उन्होंने संयोगवश पुलिस विभाग में नियुक्ति पा ली थी। सेवारत रहते हुए उनकी आयुर्वेद में गहन रुचि हो गयी और इस आयुर्वेद शोध संस्थान में माध्यम से असाध्य रोगियों का उपचार कर आज उन्होंने एक बड़ा मुकाम हासिल कर लिया।

आयुर्वेद अब भारत की सीमाओं के पार विश्व की धरोहर बन चुका है। अनेकानेक देशों की चिकित्सा प्रणालियाँ आयुर्वेद की शरणागत हो रही हैं। चिकित्सा क्षेत्र के शोधार्थियों के कार्यों में आयुर्वेद के शब्द सम्मिलित हो रहे हैं। चिकित्सा विज्ञान का जन्मदाता आयुर्वेद सही अर्थों में आरोग्य का पितामह बन गया है।

Leave a Reply