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२१वीं सदी के भारत में शिक्षकों व अभिभावकों की भूमिका

प्रत्येक कालखण्ड की आवश्यकताओं के अनुरूप शैक्षिक उद्देश्यों, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों, शिक्षक की भूमिका, अनुशासन, शिक्षक-छात्र सम्बन्ध तथा विद्यालय के स्वरूप में बदलाव आते रहे हैं।

समाज निरन्तर परिवर्तनशील है। देश व विश्व की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व शैक्षिक परिस्थितियाँ सदैव बदलती रहती हैं। भारतीय शिक्षा व्यवस्था का स्वरूप वैदिक काल, मुस्लिम काल, ब्रिटिश काल तथा स्वतंत्र भारत में भिन्नतायुक्त रहा है। प्रत्येक कालखण्ड में तत्कालीन आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए शैक्षिक उद्देश्य का निर्धारण किया गया है। तदनुरूप पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों, शिक्षक की भूमिका, अनुशासन, शिक्षक-छात्र सम्बन्ध तथा विद्यालय के स्वरूप आदि में बदलाव आते रहें हैं।दीर्घ पराधीनता से मुक्त हुए स्वतंत्र भारत की शिक्षा व्यवस्था में भी राष्ट्रीय आकांक्षाओं व आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक सशक्त व प्रभावी शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता थी। विभिन्न शैक्षिक आयोगों की संस्तुतियों के अनुरूप रूप ब्रिटिश काल से चली आ रही शिक्षा नीति व व्यवस्था में समय-समय पर कुछ परिवर्तन व सुधार तो किए गए परन्तु कोई क्रान्तिकारी सकारात्मक बदलाव भारतीय शिक्षा व्यवस्था में परिलक्षित नहीं हुआ। स्वतंत्रता-प्राप्ति के इतने दशकों के पश्चात् भी हम नि:शुल्क, अनिवार्य एवं सार्वभौमिक शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने में असमर्थ रहे हैं।
प्रो० अनिल सदगोपाल अपनी पुस्तक ”शिक्षा में बदलाव का सवाल” में लिखते हैं कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने के बजाय समय-समय पर कुछ सुधार किए गए जो ऐसे ही थे जैसे किसी पुरानी चादर में जगह-जगह थेकली लगाना। शिक्षा व्यवस्था रूपी चादर को पूरी तरह ही बदला जाना था, जो कभी नहीं किया गया। नई शिक्षा नीति (१९८६), पीओए (१९९२), एनसीईआरटी द्वारा नेशनल करीकुलम फ्रेमवर्क के माध्यम से १९७५, १९८४, १९८८ और २००० में अधिगमकर्ता व समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयुक्त पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों तथा शिक्षक की भूमिका आदि के सम्बन्ध में सुझाव दिए गए। नेशनल करीकुलम फ्रेमवर्क २००५ द्वारा इन्हीं सन्दर्भों में पुन: पाठ्यचर्या को अद्यतन बनाने का प्रयास किया गया। सुझाव दिए गए कि बालकों की बातों पर गम्भीरता से ध्यान दिया जाए, आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्हें प्रेरित किया जाए, मूल्य शिक्षा को अलग से न पढ़ाकर समग्र शिक्षा के साथ एकीकृत किया जाए, सांस्कृतिक विविधताओं का समायोजन तथा व्यक्तिगत भिन्नताओं का समादर किया जाए।
पाठ्यचर्चा के मार्गदर्शी सिद्धान्तों में उल्लेख किया गया है कि ज्ञान को स्कूल के बाहरी जीवन से जोड़ा जाए, पढ़ाई को रटन्त से मुक्त किया जाए, पाठ्यचर्या में इस बात पर भी बल दिया गया कि ज्ञान का अर्थ मात्र सूचना प्रदान करना नहीं है। विशाल पाठ्यक्रम व मोटी किताबें शिक्षा व्यवस्था की असफलता की प्रतीक हैं। अत: पाठ्यपुस्तकों का बोझ कम किया जाए। मूल्यों के विकास हेतु उपदेश नहीं वरन् वातावरण दिया जाए। कक्षा में शांति बनाए रखने की जगह मुक्त व अन्त:क्रियायुक्त वातावरण को प्रोत्साहित किया जाए। स्कूल व बाहरी जीवन के तनावयुक्त वातावरण से बालकों को बचाया जाए। खेल-कूद का उद्देश्य बालकों में सामूहिकता की भावना उत्पन्न करना हो, न की रिकॉर्ड बनाना या तोड़ना। मातृभाषा सीखने-सिखाने पर बल दिया जाए। कल्पना व मौलिक लेखन को प्रेरित किया जाए। प्रशंसा, पुरस्कार व दण्ड का प्रयोग भी सीमित हो। पाठ्यक्रम में उन तत्त्वों का समावेश किया जाए जिससे वैचारिक स्वतंत्रता, दूसरों के प्रति संवेदनशीलता तथा नवीन परिस्थितियों के प्रति सृजनात्मक व लचीलेपन के साथ अनुक्रिया करने के गुणों का विकास हो। इस प्रारूप में विद्यालय में सहयोगपूर्ण अधिगम प्रत्यक्ष अनुभवों से किए जाने वाले अधिगम पर भी बल दिया गया है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मनोरंजन के स्थान पर सौन्दर्यबोध को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। अध्यापकों व छात्रों के मूल्यांकन की प्रक्रिया सतत् व व्यापक होनी चाहिए। शिक्षकों तक अकादमिक संसाधन व नवाचार समय से पहँुचाए जायें। समानता, धर्मनिरपेक्षता तथा सामाजिक न्याय के मूल्यों को पाठ्यक्रम में समाविष्ट किया जाए। शिक्षा को एक मुक्तकारी प्रक्रिया के रूप में विकसित करना होगा। शिक्षा की प्रक्रिया का इस तरह से संचालन करना होगा ताकि सभी प्रकार के शोषण और अन्याय से मुक्त समाज का निर्माण हो सके। शिक्षा बालकों में राष्ट्र के प्रति गौरव भाव जाग्रत करने में समर्थ हो।
भारत एक तीव्र गति से विकासोन्मुख वृहत् अर्थव्यवस्था है। अत: शिक्षा प्रणाली में इस प्रकार के तत्त्वों का समावेश करना होगा, जिससे भावी नागरिकों में उत्पादन व राष्ट्र निर्माण में योगदान देने के कौशलों का विकास हो और वे जीविकोपार्जन में आत्मनिर्भर हो सकें। पाठ्यचर्या में सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार व संविधान के मूलभूत तत्त्वों की जानकारी के साथ-साथ जनसंख्या शिक्षा, पर्यावरण शिक्षा, मूल्य शिक्षा, मानवाधिकार शिक्षा तथा शान्ति शिक्षा विषयक तत्त्वों का भी समावेश किया जाना चाहिए।

शिक्षा को एक मुक्तकारी प्रक्रिया बनाना होगा जिसके अन्तर्गत सभी प्रकार के शोषण और अन्याय से मुक्त समाज का निर्माण हो सके।

वर्तमान समय में भारत मूल्य संकट के दौर से गुजर रहा है। प्रयोजनवादी, भौतिकवादी व उपभोक्तावादी पाश्चात्य मूल्यों के तथा परम्परागत भारतीय मूल्यों के मध्य द्वन्द्व चल रहा है। बढ़ती व्यक्तिवादिता, स्वार्थपरता, धनलोलुपता, अनियन्त्रित लालसा, होड़ व गलाकाट प्रतिद्वन्द्विता पूँजीवादी समाज और उपभोक्तावादी संस्कृति की देन है। इनका निदान सभी शिक्षाविदों व प्रबुद्धजनों को मिलकर खोजना होगा। आधुनिक युग विज्ञान व तकनीकि का युग है। विवेकपूर्ण ढ़ंग से उपयोग करने पर विज्ञान वरदान है और अविवेकपूर्ण तरीके से प्रयोग में लाए जाने पर यही अभिशाप भी सिद्ध होता है। आज जीवन का कोई भी क्षेत्र इण्टरनेट और कम्प्यूटर से अछूता नहीं रह गया है। समाज के अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ शिक्षा में भी इसका व्यापक रूप से प्रयोग किया जा रहा है। अन्ड्रॉयड फोन के माध्यम से छात्रों की पहुँच सूचना स्रोतों तक बहुत आसान हो गई है। सोशल मीडिया पर भी सूचनाओं का आदान-प्रदान निर्बाध रूप से चल रहा है। सूचना तकनीकी के बढ़ते प्रयोग के सन्दर्भ में शिक्षकों व अभिभावकों को सजग रहना होगा तथा अपने बच्चों पर सतर्क दृष्टि रखनी होगी ताकि वे इसके दुरूपयोग से होने वाले दुष्प्रभावों से बचे रह सकें।
विद्यालय शिक्षा का एक औपचारिक साधन है तथा परिवार, समुदाय, धार्मिक संस्थाएँ, आस-पड़ोस समवयस्क समूह तथा जन-संचार के साधन शिक्षा के अनौपचारिक साधन हैं। बालकों के सर्वांगीण विकास के लिए, इन दोनों प्रकार के साधनों के मध्य परस्पर सहयोग व समन्वय होना चाहिए। परिवार के स्वरूप एवं उसके वातावरण का बालक के जीवन पर दीर्घकालीन प्रभाव पड़ता है। प्रारम्भिक जीवन में संस्कारों की शिक्षा बालक को अपने परिवार से ही मिलती है। परिवार के सदस्यों के आपसी सम्बन्ध मधुर होने चाहियें। छात्र व अभिभावकों के मध्य सम्बन्ध भी बालक के विकास पर अनेक प्रकार के प्रभाव डालते हैं। बच्चों को परिवार में यथोचित सम्मान व अपनत्व मिलना चाहिए। यदि बालक कुछ अवांछनीय व्यवहार करते हुए दिखाई दें तो माता-पिता को उनके कारणों को जानने का प्रयास करना चाहिए तथा प्रेम व सहानुभूति द्वारा उनके व्यवहार में परिमार्जन करने का प्रयत्न करना चाहिए। बच्चों की रुचियाँ, अभिरुचियाँ, अभिवृत्तियाँ, बुद्धिलब्धि स्तर आदि व्यक्तिगत भिन्नताओं को ध्यान रखते हुए ही उन्हें विषय का चयन में मदद करनी चाहिए। सभी बच्चों से एक समान रूप में अति उच्च अपेक्षाएँ करना उचित नहीं है।
परिवार व विद्यालय के मध्य भी सहयोग व समन्वय होना चाहिए। इस सन्दर्भ में शिक्षक-अभिभावक संघों की महत्वपूर्ण भूमिका है। विद्यालय में निर्देशन व परामर्श की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। सांवेगिक स्थयित्व व तनावमुक्त अधिगम के लिए हैप्पीनैस पाठ्यक्रम जैसे नये कार्यक्रम भी विद्यालयों में अपनाये जाने चाहिये। प्राणायाम व योग का नियमित अभ्यास बालकों में एकाग्रता को तो बढ़ाता ही है, साथ ही उन्हें स्फूर्ति व शान्तचित्तता भी प्रदान करता है।
डेलर्स (लर्निंग : द ट्रैजर विदिन, यूनेस्को, १९९६) शिक्षा के चार स्तम्भों की चर्चा करते हैं—जानने को सीखना, करने को सीखना, सहजीवन सीखना होना अर्थात्, परिपूर्णता सीखना (लर्निंग टू नो, लर्निंग टू डू, लर्निंग टू लिव टूगेदर, लर्निंग टू बी)। इनसे तात्पर्य यह है कि छात्रों को व्यापक सामान्य ज्ञान सहित गहनता से कार्य करने के अवसर भी प्रदान किए जायें। उन्हें केवल व्यवसायिक कौशल ही नहीं वरन् अन्यान्य परिस्थितियों में हीनभावना के साथ सहयोग आधारित कार्यानुभव प्रदान किए जाने चाहिये। दूसरों की समझ, परस्पर निर्भरता तथा सहयोगपूर्ण कार्य, धर्मनिरपेक्षता, आपसी सद्भाव शान्ति विषयक मूल्यों का सम्मान हो। शिक्षा के द्वारा आत्मविकास, स्वायत्तता, निर्णय क्षमता तथा व्यक्तिगत दायित्व बोध विकसित हों। ज्ञान-प्राप्ति अन्य प्रकार के सीखने में बाधक न हो। २१वीं सदी शिक्षा व्यवस्था में इन चार स्तम्भों को भी ध्यान रखना होगा तभी हम निजीकरण, उदारीकरण व भूमण्डलीकरण की चुनोतियों का सामना करते हुए भारत को विश्व मंच पर एक सशक्त राष्ट्र के रूप में स्थापित कर पायेंगे।

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