भारतीय संस्कृति की आधारभूमि पर निर्मित उनकी सर्वधर्म दृष्टि से युक्त विचारधारा मानवता को समर्पित थी जिसमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का महाभाव अनुप्राणित था।
महात्मा गांधी का असाधारण व्यक्तित्व एवं कृतित्व उनके जन्म के 150 साल बाद आज भी उनकी याद दिलाता है। उनके निराले जीवन की अनेक घटनाएँ ऐसी अद्भुत और विस्मयकारी हैं जिनसे लम्बे समय तक मानव मनीषा को सीख मिलेगी। यूँ तो दुनिया का इतिहास एक-से-बढ़कर-एक राजनेता और समाज-क्रान्ति के प्रणेताओं के चमत्कारी कारनामों से भरा है किन्तु महात्मा गांधी की पहचान इन सबके बीच अपने ढंग की कुछ अलग ही है। वे इंग्लैण्ड से वकालत पढ़कर अब्दुल्ला एण्ड कम्पनी का केस लड़ने के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका गये थे। वहाँ उन्होंने नस्लीभेद व पूर्वाग्रह से भरे अंग्रेजी शासन के भयावह अत्याचारी रूप को नजदीक से देखा। इसी की प्रतिक्रियास्वरूप अंगे्रजों के अन्याय व दमनचक्र के विरुद्ध गांधी जी के मन में जिस नई क्रान्ति का अंकुर फूटा वह महावीर और बुद्ध की शिक्षाओं से जन्मा था। यह सत्यनिष्ठ एवं दृढ़ संकल्प वाले निर्भीक गांधी का सत्य और अहिंसा से अभिप्रेरित अभिनव धर्मयुद्ध था। पापशक्ति के विरुद्ध यही सोच कालान्तर में भारत के नील किसानों के अधिकारों को हासिल करने का अपराजेय अस्त्र बना और अन्तत: भारतीय स्वतन्त्रता के सशक्त आन्दोलन में रूपान्तरित हो गया।
गांधी जी ने मानव समाज के राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर से सम्बद्ध समस्याओं के विविध स्वरूपों तथा आयामों पर गहन चिन्तन किया। भारतीय संस्कृति की आधारभूमि पर निर्मित उनकी सर्वधर्म दृष्टि से युक्त विचारधारा मानवता को समर्पित थी जिसमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का महाभाव अनुप्राणित था। उन्होंने अहिंसा, स्वच्छता, बेरोजगारी, निर्धनता, छुआछूत, साम्प्रदायिकता, स्वरोजगार, स्वावलम्बन, कृषि, स्वदेशी, पर्यावरण, महिलाएँ, अमन-सद्भावना, शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति तथा नैतिकता आदि विषयों पर विस्तारपूर्वक विचार व्यक्त किये हैं।
गांधी जी के अनुसार, सत्य और अहिंसा — ये दोनों आत्म-साक्षात्कार का प्रभावशाली माध्यम हैं। अहिंसा की जिज्ञासा बातों से नहीं जीवन-कार्यों से शान्त होती है। अहिंसा की प्रवृत्ति मनसा, वाचा और कर्मणा तीन प्रकार से परिलक्षित होती है। अहिंसा के लिए निर्भयता का गुण परम आवश्यक है। गांधी के अिंहसक अस्त्र सत्याग्रह को धरती के सभी देशों ने आदर की दृष्टि से देखा और इसे विशुद्ध मन से अंगीकार भी किया। तभी तो संयुक्त राष्ट्र ने बापू की जन्म जयन्ती को वर्ष 2007 में ‘अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाने की अपील की थी। यह उद्घोषणा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि और उनके राष्ट्र को अर्पित सम्मान का प्रतीक कही जायेगी।
अहिंसा से ही बुझेगी हिंसा की आग
262 ईसा पूर्व भारत के प्रसिद्ध कलिंग युद्ध में भीषण रक्तपात हुआ था। मौर्य सम्राट अशोक ने राजा अनंत पद्मनाभन को युद्ध में हराकर उसके राज्य को मौर्य साम्राज्य में मिला लिया था। बाद में सम्राट अशोक पर भगवान बुद्ध की अहिंसावादी शिक्षाओं का गहरा प्रभाव पड़ा और उसने बौद्ध धर्म अपना लिया। विचार में हृदय-परिवर्तन की बहुत बड़ी शक्ति है जिसने समय-समय पर भीमकाय असम्भावनाओं को सम्भव कर दिखाया है।
आज दुनिया भर के देश पारस्परिक मतभेदों के चलते विश्व- युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं। अनेक देश आतंकवाद के शिकार हैं और अकारण निरपराध नागरिकों की हिंसा कर रहे हैं। हिंसा की आग बच्चों, बूढ़ों, औरतों तथा शस्त्रधारी व निहत्थे लोगों में भेद नहीं करती। मत, म़जहब, जाति, रंगभेद, क्षेत्रवाद, भाषा, लिंग और विदेशी व्यापार के आधार पर चारों ओर हिंसा का नंगा नाच हो रहा है। सीरिया, इराक, कोरिया, वेनेजुएला, अफ्रीका, श्रीलंका, न्यूजीलैण्ड, फ्रांस, अमेरिका, लंदन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और हमारे देश में हर रोज-हर पल बेबस इंसानियत हैवानियत के जुल्म का शिकार हो रही है। सभी दिशाओं में अशान्ति का वातावरण है और विश्वयुद्ध के बादल गरज रहे हैं।
दशकों से हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान आतंकवाद के सहारे अघोषित लड़ाई में जुटा है। वह हमें बराबर परमाणु युद्ध द्वारा नेस्तनाबूद करने की धमकी दे रहा है। सरहद के निकटवर्ती गाँवों के निवासी मारे जाते हैं, घायल हो जाते हैं और घर-खेती बर्बाद हो रही है। धरती के बहुत-से मुल्क ऐसी हरकतों के शिकार हैं लेकिन प्रश्न है कि इससे नुकसान के अलावा किसी को हासिल क्या होगा?
ऐसे में गांधी और उनकी प्रेमयुक्त अहिंसावादी नीति याद आती है। देशों के बीच मतभेद होते हैं और हैं किन्तु उनसे लगी आग को अहिंसा की ताकत से ही शान्त किया जा सकता है। प्रेम-दया-करुणा-सौहार्द-मानवता की विचारधारा पर आधारित गांधीवादी सत्याग्रही आन्दोलन हिंसक मार की बेहतर ढाल बन सकते हैं। वैमनस्य व कटुता से जनित बर्बरता के सम्मुख अहिंसा-आधारित इंसानियत ही सच्ची मिसाल कायम कर सकती है। हजारों साल पहले घटित भगवान बुद्ध के आदेश पर आधारित निर्भीक और सकारात्मक प्रयास करने का संकेत कर रही है।
गांधी जी की अनुभूति थी कि सभी धर्मों का सार मनुष्यों की क्षमता के अनुसार नि:स्वार्थ प्राणिमात्र की सेवा पर केन्द्रित है।
सेवा ही सच्ची आराधना
मोहनदास करमचंद गांधी को प्रेम, उपासना, अध्यात्म, सेवा, सत्य, अहिंसा और बन्धुत्व का पर्याय कहा जा सकता है। उन्हें महात्मा कहा गया लेकिन वे साधु-संतों की तरह गेरुए वस्त्र धारण करने वाले संन्यासी नहीं थे। उनका साधुत्व और अध्यात्म स्वयं उनके अन्तर्मन में था। उनकी दृष्टि में धर्म जीवन का नियम है और धर्म का तत्त्व हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई आदि सभी धर्मपन्थों में व्याप्त है। नि:सन्देह वे खुद को हिन्दू कहते थे और हिन्दू विश्वासों को अन्य धर्मों के सार्वभौम विचारों के निमित्त सेतु स्वीकार करते थे। उन्होंने ईश वन्दना के लिए भगवद्गीता के श्लोकों, संध्या भजन की प्रार्थनाओं, गुरु नानकदेव की उक्तियों, कुरान की आयतों और बाइबिल की पंक्तियों का चयन किया था। उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं, मीराबाई, कबीर इत्यादि को भी वन्दना के लिए चुना था। वस्तुत: इन सभी का सुन्दर समाहार उनकी आध्यात्मिक यात्रा की मौलिकता को अभिव्यक्त करता है। समीक्षकों की दृष्टि में गांधी जी का जीवन सही अर्थों में स्थितप्रज्ञ पुरुष की जीवन-कथा है।
गांधी जी को अनुभूति थी कि सभी धर्मों का सार मनुष्यों की क्षमता के अनुसार नि:स्वार्थ प्राणिमात्र की सेवा पर केन्द्रित है। सच्चे अर्थों में भक्ति और आराधना का दृष्टान्त पीड़ितों की सेवा में निहित है। प्रत्येक इन्सान का धर्म है कि वह परोपकार को अपना कर्तव्य समझे। मानव सेवा को सर्वोपरि मानते हुए उन्होंने कहा कि जरूरतमंदों की मदद से ही ईश्वर के साथ एकाकार सम्भव है। अध्यात्म साधना, सेवा के साथ चलती है और इसी के साथ श्रम, संयम, उदारता व क्षमा की भावना भी बढ़ती जाती है। उन्होंने कहा कि मन के विकारों को जीतना अन्त:स्थल का भीषण संग्राम है। यह अतीव दुष्कर कार्य है। बाह्य और अन्तर्मन के विकारों से युक्त मन ही अध्यात्म की दिशा में अग्रसर हो सकता है। मन के विकारों की शुद्धि के व्यवहार में विनम्रता आयेगी। गांधी जी नि:स्वार्थ और निस्पृह मानव सेवा को सच्ची धर्म साधना स्वीकार करते थे।
‘स्वच्छता’ कब बनेगी हमारी आदत?
अपने इर्द-गिर्द के वातावरण को स्वच्छ रखना हरएक देश के प्रत्येक नागरिक की नैतिक जिम्मेदारी है, वैसे ही हम भारतवासियों की भी है। स्वच्छता वस्तुत: महात्मा गांधी के संस्कारों में निहित थी। वह साफ-सफाई को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते थे और इसी सोच को उन्होंने अपने व्यवहार में ढालकर देशवासियों को अनुकरण के लिए अभिप्रेरित किया। उन्होंने स्वच्छता को ईश्वरभक्ति के साथ जोड़कर देखा और लोगों को स्वच्छता-सम्बन्धी शिक्षा भी दी। बापू ने स्वच्छ जीवन-शैली को आखिरी साँस तक प्रतिदर्श के रूप में प्रस्तुत किया और इस आशा के साथ प्राण त्याग दिये कि भविष्य का भारत स्वच्छता के अभियान को निजी संकल्प के रूप में ग्रहण करेगा। न जाने क्यों दीर्घकाल तक भारतीय समाज में स्वच्छता के प्रति जिम्मेदारी, श्रद्धा और संकल्प का भाव जाग्रत नहीं हो सका और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को स्वच्छ भारत का सपना पूरा करने के उद्देश्य से 2 अक्टूबर, 2014 से स्वच्छ भारत के अभियान का बीड़ा उठाना पड़ा और देखते-ही-देखते समूचा भारत सफाई करने दौड़ पड़ा। इसी के साथ सिंगल यूज प्लास्टिक को रोकने का अभियान भी जुड़ गया है।
स्वच्छता की ओर बढ़ते भारतीयों के कदम दरअसल गांधी जी के विचारों का प्रसार और विस्तार है। साफ-सफाई को लेकर भारत में जन-जागृति आई है। समाज, राजनीति, शासन-प्रशासन, शिक्षा, साहित्य, सांसद, मंत्रीगण, अधिकारीवर्ग और आम जन सभी एक नए जोश के साथ आगे बढ़ रहे हैं। देश के गाँव-गाँव में बहुतायत में शौचालयों का निर्माण हुआ है और देश के हर समुदाय ने कम समय में ही खुले में शौच से मुक्त भारत बनाने में सराहनीय योगदान किया है। साथ ही, बेहतर स्वच्छता बेहतर स्वास्थ्य की आधार है।
गांधी जी के स्वच्छता से जुड़े सपने की बात तब तक अधूरी है जब तक स्वच्छता पूरी तरह हमारी आदत में शामिल नहीं हो जाती। उन्होंने कहा था कि स्वच्छता को अपने आचरण में इस तरह अपना लो कि वह आपकी आदत बन जाये। मुझे यह लिखते हुए दु:ख है कि अपने देश के शहर-ग्राम की गलियों, नाले-नदियों और वातावरण में प्रदूषण देखकर लगता है कि अभी हमें योजन-योजन तक दूर जाना है। ऐसा शायद इसलिए है कि हमारे परिवारों और पाठशालाओं में स्वच्छता का बीज बाल्यकाल से ही नहीं बोया जा रहा, उसमें कुछ कमी है। इस संदर्भ में मुझे, प्रसंगवश एक बीती बात याद आ रही है। कई वर्ष हो गये, सफर के दौरान ट्रेन की बोगी में हमारे साथ एक अमेरिकी माँ के साथ उसकी युवा बेटी भी थी। हम लोगों ने खाना खाकर अवशेष पैकिंग को खिड़की के बाहर फेंक दिया लेकिन लम्बे समय तक बेटी हाथ में पैकिंग के साथ बैठी रही और स्टेशन आने का इंतजार करती रही। किसी ने उसे पैकिंग बाहर फेंकने का इशारा भी किया। उसने सिर्फ इतना कहा–नो, नो प्लीज। स्टेशन आया, गाड़ी दो मिनट के लिए रुकी तो बेटी तेजी से उतरी और पैकिंग को कूड़ेदान में डाल दिया। सचमुच ही स्वच्छता उसके आचरण में रच-बसकर आदत बन गयी थी। वह एक अभारतीय गांधीवादी थी।
अवश्य ही, स्वच्छता मानव-जीवन के नैतिक मूल्यों में समाहित एक मूल्य है; किन्तु यह महज एक सिद्धान्त भर ही न रहे, इसके लिए कुछ व्यावहारिक योजनाएँ शुरू की जानी आवश्यक हैं। देश के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में उचित दूरी पर कूड़ेदानों व जनसुविधाओं की जानकारी व प्रबन्ध अपरिहार्य हैं। शासन-प्रशासन को चाहिए कि वह नीचे से ऊपर तक के विविध स्तरों पर जनशिक्षा और जागरूकता के लिए अनवरत प्रयास करे। इसके निमित्त विश्व की अन्य सभ्यताओं से सीख लेकर योजनाबद्ध प्रबन्ध जुटाने में ह़र्ज नहीं है।
विकेन्द्रित अर्थतंत्र : गांधी का स्वावलम्बी भारत
भारत की आजादी के प्रसिद्ध पुरोधा और महानायक गांधी जी ने अपने जीवन के संघर्षकाल में देश की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक तथा मानवतावादी परिस्थितियों का जमीनी स्तर पर सूक्ष्म आकलन किया था। उन्हें भारतीय इतिहास में दर्ज आर्थिक अध्याय के वे पन्ने याद थे जिनमें आक्रान्ताओं और साम्राज्यवादी ताकतों ने सोने की चिड़िया के पर नोचकर उसे पंगु बना दिया था। उन्होंने नजदीक से अनुभव किया था कि भारत के आत्मनिर्भर गाँव अंगे्रजों के शोषण से शनै:-शनै: आर्थिक स्वावलम्बन खो रहे थे और विदेशी वस्तुओं तथा सेवाओं के मोहताज हो रहे थे।
उन्होंने भारतीयों को एक ओर भौतिक रूप से आर्थिक गरीबी में डूबते देखा तो साथ ही उनकी मानसिकता को भी पराश्रमी, कमजोरी और पराभव की तरफ बढ़ते पाया। अंग्रेजों की सोची- समझी नई नीति के तहत शारीरिक श्रम की उपेक्षा हो रही थी।
गांधी जी देशवासियों को स्वावलम्बी बनाकर विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का सपना देख रहे थे। इसीलिए उन्होंने ‘हिन्द स्वराज’ के अन्तर्गत हिंसक उपभोक्तावाद से बचाव की दृष्टि से लोगों को आत्मसंयम व आत्मबल की शिक्षा दी। खादी चरखा को जन-आन्दोलन का प्रतीक बना दिया। घर-घर में गांधी के खादी चरखे चलने लगे। उन्होंने विदेशी माल के परित्याग और स्वदेशी अपनाने पर जोर दिया क्योंकि इससे निजी उत्पादन के नए क्षेत्रों की उत्पत्ति से नए रोजगार की राहें खुलती हैं और समाज में आत्मनिर्भरता आती है।
अधिकाधिक स्वदेशी अपनाने से बढ़ती उत्पादकता व नए रोजगार देश की अर्थव्यवस्था में स्वालम्बन व आत्मनिर्भरता को जन्म देते हैं। गांधी की इस शिक्षा ने उद्योग जगत् को आत्मोन्नति का शक्तिशाली सन्देश दिया है। भारत के नीति-नियंता, स्वविवेकी उद्यमी तथा उद्योगपति गांधी के इस सिद्धान्त पर भारत में नया शक्तिशाली अर्थतंत्र निर्मित कर सकते हैं।
गांधी जी की उदार नीति का यह कैसा प्रतिदान?
सत्य, प्रेम, अहिंसा, सहिष्णुता और समावेशी उदारता पर आधारित महात्मा गांधी के विचार विश्व-मानवता का हृदय छूते हैं। समूची दुनिया के लिए आज भी प्रासंगिक उनकी उदार नीति का सभी देश सम्मान करते हैं। उन्होंने जिन आदर्श मूल्यों की वेदी पर भारत की आजादी के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया, निहित स्वार्थों में दग्ध मानसिकता न तो उनके त्याग का सही आकलन कर पायी और न उसका उचित प्रतिदान ही मिला।
भारत की आजादी के लिए हिन्दू और मुसलमान उनके नेतृत्व में एक साथ मिलकर अंगे्रजों से लड़े थे। दोनों सम्प्रदाय उनकी आँखों की समवेत् रोशनी थे। वे हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द के प्रबल पक्षधर थे और भारत से अलग पाकिस्तान नहीं चाहते थे, किन्तु मौहम्मद अली जिन्ना तथा मुस्लिम लीग उनके आदर्श मूल्यों को आत्मसात् नहीं कर पाये। परिणामत: उनके द्वारा समर्थित द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के आधार पर विभाजन हो गया और गांधी जी की मंशा के विरुद्ध भारत से पृथक् पाकिस्तान एक राष्ट्र बन गया। सत्ता के स्वार्थ और लालच में भौगोलिक व राजनीतिक रूप से विभक्त दोनों देश दोस्त और भाई बनकर नहीं रह सके। प्रेम और बन्धुत्व से भर महात्मा के हृदय पर यह भारी कुठाराघात था। यही नहीं, विभाजन के समय अहिंसा के पुजारी को अपनी आँखों के सामने हिंसा, मारकाट और भारी खूनखराबा देखना पड़ा।
पाकिस्तान के निर्माता जिन्ना और उसके रणनीतिकार समर्थकों की जन्म से ही भारत के स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर प्रान्त पर बुरी ऩजर थी। उसी के चलते पाक ने कबालियों की शक्ल में भारत पर हमला कर पाक अधिकृत कश्मीर हमसे छीन लिया। इतना ही नहीं, भारतीय उदारवाद के सीने पर पाक पोषित आतंकवाद की भीषण आग बुझाए नहीं बुझ रही है। नियोजित षड्यन्त्रों के सहारे आतंकवादी हमलों की वजह से भारत की जान-माल की जबरदस्त हानि जगविदित है। यदि पाकिस्तान के रहनुमा गांधीवादी दृष्टिकोण, सिद्धान्तों और सद्भाव पर सही मायनों में अमल करते तो भारत-पाक सम्बन्धों की तस्वीर कुछ और ही होती। अमन और चैन से उपजे वातावरण में दोनों राष्ट्र विकास और समृद्धि के पथ पर बहुत दूर जा सकते थे।
निराली है गांधी जी की राजनीति
गांधी जी का असाधारण व्यक्तित्व अद्भुत और निराला है। यह असंख्य तारों के बीच ‘ध्रुव’ की तरह अप्रतिम भी है। प्राय: धर्म और राजनीति को नदी के दो किनारों की तरह देखा जाता है जिनका कभी मेल नहीं होता लेकिन गांधी की कार्यशैली ने इस मिथक को झुठला दिया। उनके जीवन में धर्म और राजनीति का सहज-सुन्दर समावेश है। धरती के लाखों-करोड़ों लोगों ने उनमें गृहस्थी संत को देखा और उन्हें महात्मा की संज्ञा दी। उनके अद्र्धनग्न कृशकाय शरीर में ऐसा पाषाणी राजनेता छिपा है जिसकी हुंकार ने विश्व की साम्राज्यवादी ताकत को हिलाकर रख दिया। उनके चमत्कारी व्यक्तित्व में सत्य, त्याग और नैतिक आचरण की दिव्यता का समावेश है और संकल्पशक्ति राष्ट्रवाद तथा जनकल्याण की सात्विक ऊर्जा से तरंगायित है।
भारतीय मनीषियों ने राजनीति को परिभाषित करते हुए कहा है, ‘नैनं क्षेमार्थ इत्यर्थे नीति’। राजनीति हमारी सोच एवं विचारधारा को क्षेम की ओर ले जाती है। यह लोकहित और सर्वकल्याण की नीति है। राजनीति के अग्रजनों का जीवन सर्वमंगल के भाव से अनुप्राणित होना चाहिए। आदर्श मूल्यों से अभिप्रेत त्याग तथा तपस्या का ऐसा प्रतिमान जो जनसाधारण के लिए अनुकरणीय हो जिस पर कोई अंगुली न उठा सके, जो सभी का आदर्श जीवनपथ बन सके।
प्रश्न है कि क्या आज का राजनीतिक परिदृश्य कुछ ऐसा दीख पड़ता है जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं? राजनीतिक दल अपनी विशिष्ट विचारधारा और सिद्धान्तों के आधार पर पहचाने जाते हैं। उनका जीवन-दर्शन और व्यावहारिक रूप जनसामान्य को अपनी ओर आकृष्ट करता है तथा अंगीकार करने के लिए पे्ररित करता है। लेकिन वर्तमान राजनीतिक फलक पर प्राय: सभी दल सिद्धान्तहीन दिखाई पड़ते हैं, न ही उनका लोकहितकारी अभीष्ट लक्ष्य ही परिलक्षित होता है। हाँ, निहित स्वार्थों में लिप्त बेमेल विचारधाराओं वाले भ्रष्ट लोगों के ऐसे दल या गठबन्धन अवश्य हैं जो सत्तासुख भोगने के लालच में एकजुट होकर कार्यरत हैं। ऐसे राजनीतिक दल मलाईदार पदों के लिए रोज दल-बदल करते हैं, सिद्धान्तहीन समझौते करते हैं, पुरानी दुश्मनी भूलकर गले मिलते हैं और बात बिगड़ने पर तलाक लेने में भी गुरेज नहीं करते। राजनीति के मंच पर आजकल ऐसी लीलाएँ नित्यप्रति देखने को मिल रही हैं और जनता अवाक् होकर देख रही है। देश में जनचेतना, सूझबूझ, विवेकदृष्टि और निर्णय- क्षमता का अभाव दृष्टिगोचर है।
150वीं जन्मजयन्ती पर गांधी जी की प्रतिमा संवेदनशील बुद्धिजीवियों से पूछ रही है कि क्या यही प्रजातांत्रिक व्यवस्था लाने के लिए स्वतन्त्रतासेनानियों ने अपना सर्वस्व अर्पित किया था? यह प्रजातंत्र नहीं राजनीतिक नेतृत्व के निर्वात में कोरा भीड़तंत्र है। निश्चय ही, यह अधिक नहीं चलेगा और अब सच्चे राष्ट्रवादियों को देश के राजनीतिक नैतिक विकल्प की तैयारी करनी होगी।
हे राम!
देवलोक गमन करते गांधी जी के अन्तिम शब्द हैं–हे राम! गांधी के ‘राम’ राजनीति से उद्भूत नहीं बल्कि राजनीति को नई दिशा देने वाले और उसमें नए प्राणों का संचार करने वाले ‘राम’ हैं। ये राम भारत की सुप्राचीन आध्यात्मिक तथा नैतिक संस्कृति के परिचायक हैं जो मर्यादित आचरण की सीमाओं में बँधे हैं। ये उस रामराज्य की याद दिलाते हैं जिसके शासक राजा रामचन्द्र प्रजा की भलाई और कल्याण के लिए हर क्षण अपना सर्वस्व त्यागने के लिए उद्यत हैं। ऐसी रीति-नीति के पालक राम जिन्होंने राजसुख का परित्याग कर अपनी पत्नी सीता और भ्राता लक्ष्मण के साथ चौदह वर्षों तक कष्टकारी वनवास को सहर्ष अंगीकार किया। राम, जिन्होंने घायल पड़े जटायु को करुणा से सींचा, दलित शबरी के जूठे बेर खाकर उसे स्नेहरंजित सम्मान दिया, रावण के सम्मुख अडिग खड़े अंगद के पाँवों को शक्ति दी, केवट को अदम्य विश्वास प्रदान किया, भक्त हनुमान के सीने में आसन लिया और पत्थर बनी अहिल्या में नवजीवन का संचार किया। राम, जिन्होंने पापशक्ति के विरुद्ध समझौताविहीन संग्राम के लिए समर्पित सेना को संगठित किया और अन्याय के प्रतीक दशानन का वध किया। महात्मा गांधी ने अपनी मधुर रामधुन के माध्यम से रघुपति राघव, पतित पावन, ईश्वर और अल्लाह के प्रतिरूप भगवान राम से समस्त पथ-विचलित मनुष्यों को सन्मति प्रदान कर प्रार्थना की है।
चिर-प्रासंगिक है गांधी की संकल्पशक्ति
गांधी जी के जन्म के 150 वर्ष बाद उनकी शिक्षाओं की प्रासंगिकता खोजना स्वयं में उनके असाधारण व्यक्तित्व का प्रमाण है। उनकी विचारधारा, आचरण और कार्यशैली में वर्तमान पीढ़ी को सिखाने के लिए बहुत कुछ है, जिसके अल्पांश की विवेचना हम ऊपर कर चुके हैं और ढेर सारा अभी अन्यत्र विद्यमान है।
दरअसल, डेढ़ शताब्दी में गांधी जी ने जो कुछ कहा और जो निर्णय लिये उनसे सहमति अथवा असहमति के अनेक कारण हो सकते हैं। वे परिस्थितियाँ कुछ और थीं और इस अन्तराल में समय की नदी में बहुत पानी बह चुका है। इतना समझना पर्याप्त होगा कि गांधी जन्म से लेकर अब तक निजी, सामाजिक और राजनीतिक मूल्यों में जितनी गिरावट आ गयी है, उसमें सुधार लाने के लिए गांधी जी के कुछ सिद्धान्त तथा प्रयोग आज भी बहुत उपयोगी एवं प्रासंगिक हैं।
‘चल पड़े जिधर दो डगमग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर’ के पर्याय गांधीवाद में जो कुछ अच्छा तथा सकारात्मक दीख पड़ता है, उसे अपनाने में कोई हर्ज नहीं है। आज के सन्दर्भ में गांधी जी की शिक्षाओं की समीक्षा से बेहतर है कि यथासम्भव उन पर अमल करके देखा जाए। जिस संकल्पशक्ति के बल पर गांधी जी जीवन भर विश्व की महाशक्ति से जूझते रहे, वह चिरपर्यन्त प्रासंगिक रहेगी।