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गाँधी विचार – शिक्षा का मूल तात्पर्य

गाँधी विचार – शिक्षा का मूल तात्पर्य

शिक्षा  से मैं यह अर्थ लेता हूँ कि वह बच्चे और मनुष्य की काया, बुद्धि और आत्मा में जो कुछ श्रेष्ठ है उसे समग्र रूप से उभार दे।’

‘मनुष्य न केवल बुद्धि है, न निपट पाशविक शरीर और न केवल ह्य्दय अथवा आत्मा। समग्र मानव इन तीनों के उचित और सामंजस्यपूर्ण योग से ही बनता है और शिक्षा की सच्ची योजना में इसका समावेश होना चाहिए।’

‘शरीर, बुद्धि और आत्मा की विविध क्षमताओं के बीच उचित समन्वय और सामंजस्य के अभाव के दुष्परिणाम स्पष्ट हैं। इन्हें हम अपने चहुँओर देख सकते हैं…अपने वर्तमान विकृत साहचर्यों के कारण हमें उनका बोध नहीं होता है…’

 

शिक्षा जगत् में विद्वत्त जनों की उपस्थिति में गांधी जी के इन वाक्यों  को कितनी ही बार  दोहराया जाता है। यह भी देखा गया है कि ऐसी चर्चाएँ  शिक्षा की  वर्तमान स्थिति और उसके प्रति शंकाएँ और आशंकाओं के वर्णन तक ही सीमित रह जाती हैं। केवल प्रतिक्रियाओं को समाधान के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है और परिणामस्वरूप वैचारिकता में सटीक योगदान सीमित ही रह जाता है। जानकारी, ज्ञान, बुद्धि और विवेक की समृद्धि का स्रोत तो विद्यार्जन की प्रथा और व्यवस्था की  निरंतरता से ही प्रवाहित और प्रस्फुटित होता है। गांधी जी की शैक्षिक वैचारिकता में आश्चर्यचकित करने वाली भविष्यदृष्टि चिह्नित की जा सकती है।

पारिवारिक उत्तरदायित्व के रूप में बच्चों की शिक्षा का प्रश्न गांधी जी के समक्ष जनवरी, १९९७ में पहली बार उभरा जब वे दस वर्ष के अपने भानजे तथा नौ और पाँच वर्ष के दो पुत्रों के साथ दक्षिण अप्रâीका में डरबन पहुँचे। अंग्रेजों के बच्चों के लिए जो अंग्रेजी माध्यम के स्कूल वहाँ थे, उनमें इन बच्चों का प्रवेश गांधी जी के नाम और काम के कारण संभव हो सकता था मगर वह ‘मेहरबानी’ होती जो युवा गांधी जी को स्वीकार्य नहीं थी।  ईसाई  मिशन के स्कूलों में जो  शिक्षा दी जा रही थी वह गांधी जी को पसंद नहीं थी। उन्होंने इन बच्चों को स्वयं पढ़ाने का निश्चय किया, जो अनियमित ढंग ही हो पाता था। उपयुक्त गुजराती शिक्षक मिला नहीं, अंग्रेजी भाषा पढ़ाने के लिए एक महिला को नियुक्त किया। अंग्रेजी भाषा के प्रति कोई दुराव नहीं था मगर शिक्षा के माध्यम के प्रति आग्रह अवश्य था। अत: बच्चे गुजराती सीखते रहें, इसके लिए वे स्वयं उनसे केवल गुजराती में ही बात करते थे। उन्होंने अपने भानजे तथा बड़े बेटे को छात्रावास भी भेजा मगर जल्दी वापस बुला लिया। उन बच्चों को नियमित शिक्षा नहीं मिली, वे भी असंतुष्ट रहे, गांधी जी ने भी अपने प्रयोग को ‘अपूर्ण’ माना। गांधी जी की अपनी आत्मकथा में इस प्रकरण के वर्णन में यह वाक्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण माने जा सकते हैं— ‘

उस समय भी मेरा ख्याल था कि छोटे बच्चों को माता-पिता से अलग नहीं रहना चाहिए। सुव्यवस्थित घर में बालकों को जो शिक्षा सहज ही मिल जाती है वह छात्रालयों में नहीं मिल सकती है।’ शिक्षा पर गांधी जी का मनन-चिंतन मुख्य रूप से यहीं से प्रारम्भ हुआ और उनके फीनिक्स तथा टॉलस्टॉय आश्रम में भी अनुभवजन्य परिवर्तनों के साथ आगे बढ़ता रहा। भारत के हर व्यक्ति के सपने के पूरे हो पाने के लिए वे शिक्षा को ‘सबसे बड़ा साधन मानते थे’। उनकी निगाह में केवल ककहरा सीखना ही शिक्षा नहीं थी, बल्कि अपने अधिकारों और कत्र्तव्यों की समझ प्राप्त करना उसमें प्राथमिकता से शामिल था।

१९०५  में उन्होंने लिखा कि इस प्रकार की शिक्षा कुछ लोगों को मिल भी जाये तो वह नाकाफी होगा, उसे तो करोड़ों लोगों यानी हर व्यक्ति तक पहुँचाना होगा। ऐसा करने के लिए ‘हमें समय देना होगा, हजारों जोशीले नौजवानों को तैयार करना होगा।’ सच्ची शिक्षा के बृहत् प्रसार के पश्चात् ही ‘भारत आगे बढ़ेगा, तभी हमारा दैन्य दूर होगा और हमारा तेज संसार में प्रकाशित होगा।’ ‘गांधी के सपनों का भारत का आधार थी सच्ची शिक्षा, जिसकी संकल्पना को साकार करने में गांधी जी जीवनपर्यन्त लगे रहे।’

गांधी के जीवन में जो भी प्रभाव पड़े–और जिनके द्वारा पड़े, उनका वर्णन उन्होंने समय-समय पर स्पष्ट ढंग से अपनी आत्मकथा तथा अन्य लेखन में किया है। दो उद्धरण अत्यंत महत्त्वपूर्ण माने जा सकते हैं। पहला उद्धरण इंडियन ओपिनियन में १८ मई, १९०७ में गुजराती में छपा था। उसे उन्होंने तत्कालीन प्रसिद्धि समाचारपत्र पालमाल गजट से लिया था– ‘हम मानते हैं कि सच्ची शिक्षा का अर्थ पुरानी या वर्तमान पुस्तकों का ज्ञान प्राप्त करना ही नहीं है। सच्ची शिक्षा वातावरण में है; आसपास की परिस्थिति में है; और साथ संगति में, जिससे जाने-अनजाने हम आदतें ग्रहण करते हैं तथा खासकर काम में है। ज्ञान का भंडार हम अच्छी पुस्तकें पढ़कर बढ़ाएँ या और अच्छी जगह से प्राप्त करें, यह तो उचित ही है। लेकिन हमारे लिए मनुष्यता सिखाना अधिक आवश्यक है। इसलिए शिक्षा का वास्तविक कार्य हमें ककहरा सिखाना नहीं, बल्कि मनुष्यता सिखाना है। अरस्तू कह गया है कि मोटी-मोटी पुस्तकें पढ़ने से सद्गुण नहीं आ जाते; सत्कर्म करने से सद्गुण आते हैं। फिर एक और महान लेखक ने कहा है कि आप अच्छी तरह जानते हैं, यह तो ठीक है, जब आप ठीक तरह से आचरण करेंगे तब सुखी माने जाएँगे। तब माता-पिता, शिक्षक और विद्यार्थी सबको इन शब्दों पर बहुत ही ध्यान देना है। इन शब्दों को उन्हें अपने दिमाग में रखना पर्याप्त नहीं है, बल्कि इनके अनुसार आचरण भी करके बतलाना है। मतलब यह है कि माता-पिता को बालकों को वैसी सुंदर शिक्षा देनी चाहिए। शिक्षकों को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए कि अक्षर-ज्ञान को शिक्षा नहीं कहते। शिक्षा का स्वरूप, विषय-वस्तु, उसे ग्रहण कर उचित विधा द्वारा बच्चों को प्रदान करना तथा उसके अन्य सभी अवयव  इसी  मर्म को सामने रखकर ही समझे जा सकते हैं कि समाज को किस प्रकार के व्यक्ति की आवश्यकता है। हिन्द स्वराज में इस पक्ष पर उनके प्रारंभिक चिंतन की झलक स्पष्ट मिल जाती है। शिक्षा का स्वरूप भी वहाँ वर्णित है। उन्होंने प्रोफेसर हक्सले को उद्धृत किया था। ‘उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसके शरीर को ऐसी आदत डाली गई है कि वह उसके बस में रहता है, जिसका शरीर चैन से और आसानी से सौंपा हुआ काम करता है। उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसकी बुद्धि शुद्ध, शांत और न्यायदर्शी है। उसने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा है और जिसकी इन्द्रियाँ उसके बस में हैं, जिसके मन में भावनाएँ बिलकुल शुद्ध हैं, जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरों को अपने जैसा मानता है। ऐसा आदमी ही सच्चा शिक्षित (तालीमशुदा) माना जायेगा, क्योंकि वह कुदरत के कानून के मुताबिक चलता है। कुदरत उसका अच्छा उपयोग करेगी और वह कुदरत का अच्छा उपयोग करेगा।’ प्रश्न यह बनता है कि जो शिक्षा दी जा रही है क्या वह व्यक्ति के मनुष्य बनाने के प्रयास  में आती है या नहीं? क्या उसका मुख्य उद्देश्य  मनुष्य बनाना है या कुछ अन्य है? उत्तर यह है कि सीमित अर्थ में दी गई शिक्षा का अच्छा उपयोग भी हो सकता है और बुरा भी। गांधी जी ने इसे समझाने के लिए कहा कि एक शस्त्र से चीरफाड़कर बीमार को अच्छा किया जा सकता है, मगर उसी से किसी की जान भी ली जा सकती है। आज के विश्व में बड़े-से-बड़े अपराध, भ्रष्टाचार, गबन, शोषण, साजिशें पढ़े-लिखे लोग ही करते हैं। इनमें से अधिकांश उच्च शिक्षा प्राप्त भी होते हैं। प्रशासनिक व्यवस्था में प्रारम्भिक कर्मचारी से लेकर ऊँचे अधिकारी तक सभी शिक्षित और प्रशिक्षित होते हैं, अपने अधिकारों के प्रति सजग और सदा सक्रिय रहते हैं, मगर जिनके अधिकारों का संरक्षण उनके उत्तरदायित्व में आता है, क्या वे  अपने उस कत्र्तव्य को भी उसी सजगता और सतर्कता से निभाने के लिए भी अंतर्मन से तैयार रहते हैं?

कहीं ऐसा तो नहीं है कि शिक्षा के सम्पूर्ण मंतव्य को मनुष्य अभी भी ढूँढ़ ही रहा है; समझ नहीं पाया है! स्वामी विवेकानंद ने इसके विस्तार, संभाव्यता और प्रभावकारिता को अत्यंत सहज ढंग से; परन्तु असीम गहराई भरे शब्दों में; कहा था–‘शिक्षा मनुष्य के अन्त:निहित पूर्णत्व का प्रगटीकरण है।’ एक सच्चा अध्यापक एक अबोध बालक/व्यक्ति को शिक्षा द्वारा व्यक्तित्व में बदल देता है। महाभारत में अध्यापक से यह अपेक्षा की गई है कि वह व्यक्ति को ‘मनुष्यत्व से देवत्व’ की ओर ले जाएगा। और ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य निष्पादन एक पवित्र वातावरण में ही हो सकता है। गुरुकुल परम्परा को जैसे ही याद किया जाता है, सबसे पहले ध्यान वहाँ के शांत, संयत, प्रकृति तथा मनुष्य के बीच के सद्भाव, पारस्परिकता, सम्मान की याद दिलाता है। एक शब्द में कहें तो पवित्रता का भान कराता है। वही अपेक्षा आज के शिक्षा संस्थानों से भी की जानी चाहिए। गांधी जी का यह कथन अत्यंत प्रचलित है कि शिक्षा द्वारा मैं बच्चे के ‘‘हाथ, मस्तिष्क और ह्य्दय” की सर्वोत्तम स्थिति तक विकास चाहते थे। इसे अन्य  तीन   शब्दों–शरीर, बुद्धि और आत्मा–द्वारा भी पूर्णरूपेण व्यक्त किया जा सकता है। अध्यापन का मुख्य उद्देश्य इन तीनों के बीच में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने के प्रयास को प्रारम्भ कर उस स्थिति तक ले जाना होता है, जहाँ पर विद्यार्थी स्वयं ही इस समन्वय का महत्त्व आत्मसात् कर इस समन्वय को और अधिक पुष्ट कर सकने का कौशल सीख चुका हो। यह सारा कुछ गांधी के इस एक वाक्य में भी छुपा है कि ‘सच्ची शिक्षा तो बच्चों के चरित्र निर्माण में है’। यहाँ पर परिवार तथा अध्यापक का सबसे महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व उजागर होता है कि प्रारम्भ से बच्चे को चरित्र निर्माण से और एक अच्छे और सच्चे जीवन  के महत्त्व से अवगत करा दिया जाये। ऐसा होने पर ही शिक्षकों और बच्चों का स्कूल जाना सार्थक समझा जाना चाहिए। स्वतंत्रता के बाद अनेक अवसरों पर जब मानवीय मूल्यों के ह्रास की चर्चा होती है, तब हर बार यही निष्कर्ष निकलता है कि जो मानवीय मूल्य सारे देश में गांधी जी प्रसारित कर सके थे, जिन्हें मानकर लोगों ने देश के लिए कितने बलिदान और त्याग किये, वे कहाँ खो गए हैं? उनकी निरंतरता बनाये रखने का उत्तरदायित्व तो शिक्षा पर ही था; यानी शिक्षा नीति और उसके क्रियान्वयन में नैतिकता, सत्यनिष्ठा, सेवा, सम्मान, सद्भाव, सहयोग, आदर, अभय, अहिंसा जैसे तत्त्व पूरी तरह प्राथमिकता पाते.और उसमें समन्वित तथा समाहित किये जाते। प्रारम्भ में जो लोग सत्ता में ऊँचे पदों पर आये थे, उनका उत्तरदायित्व केवल उस पद से सम्बंधित कार्यों का निष्पादन मात्र नहीं था; वे नई पीढ़ी के लिए आदर्श–आइकान–बन सकते थे। इसके लिए उन्हें अपने जीवन में सादगी, संयम तथा सेवा को आधार बनाना चाहिए था। जो नहीं हुआ। भारत में सदा से ही अपरिग्रह की संस्कृति को सम्मान मिला था। अत: यहाँ के जन-नेताओं तथा चयनित प्रतिनिधियों और सत्ता में गए लोगों का जीवन बापू के इस अमर वाक्य से निर्धारित होना चाहिए था कि ‘मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है’। इस वर्ग के सम्मान के लगातार ढलान पर ही आने के कारणों में सबसे प्रमुख तो शिक्षा का भारत की परम्परागत संस्कृति से न जोड़ा जाना ही था।

गांधी जी ने नए ज्ञान की स्वीकार्यता पर भी स्पष्ट मत दिया था कि मेरे घर के खिड़की-दरवाजे खुले हैं, विचारों का, ज्ञान का, नये विज्ञान का स्वागत है मगर मैं यह भी स्वीकार नहीं करता कि इस नये विज्ञान की नक़ल के झंझावात में मेरा घर ही उजड़ जाये। इसका समाधान अलभ्य नहीं है। हर देश की शिक्षा व्यवस्था की जड़ें गहराई तक वहाँ की संस्कृति में समाई होनी चाहिए और इसके साथ ही नए ज्ञान के प्रति प्रतिबद्धता भी पूर्ण पारदर्श स्तर पर स्पष्ट होनी चाहिए। हिंद स्वराज में गांधी ने नई सभ्यता और भारत द्वारा उसकी नक़ल की गंभीर आलोचना की थी। उनके अपने विश्लेषण थे; जिनमें से अधिकांश आज सही सिद्ध हो रहे हैं। यह अत्यंत तर्कसंगत धारणा है कि परिवर्तन की स्वीकार्यता देश-काल-परिस्थिति के सन्दर्भ में गहन विश्लेषण के बाद ही होनी चाहिए। भारत में शिक्षा व्यवस्था के मूलस्वरूप के निर्धारण में भी यही तर्क लागू होता है। किसी अन्य संस्कृति या देश से लाकर रोपित शिक्षा व्यवस्था कितनी हानिकर हो सकती है। इसका भारत स्वयं एक उदाहरण बन गया है। बापू ने अपने अनुभव, विश्लेषण और देश की आवश्यकता को ध्यान में रखकर जिस शिक्षा को भारत के अनुवूâल और अनुरूप पाया था वह थी नई तालीम।  इसमें दैनंदिन जीवन की  आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ वे सारे तत्त्व भी समाहित थे जो व्यक्ति को व्यक्तित्व में परिवर्तित कर सकते थे, एक समावेशी व्यवस्था में सभी को शिक्षित होने और सफल होने के समान अवसर प्रदान करने की क्षमता रखते थे और चरित्र निर्माण को प्राथमिकता देते थे। इसमें भारत की प्राचीन काल से चली आ रही ज्ञान सृजन; वितरण  और उपयोग की परंपरा के सभी मूल तत्त्व समाहित थे; नए ज्ञान के उपयोग की स्वीकृति थी, यह देश का दुर्भाग्य था कि रोपित शिक्षा व्यवस्था में पले-बढ़े-पगे निर्णय लेने वाले साहस नहीं कर सके, देश की भविष्य की आवश्यकताओं का अनुमान नहीं लगा सके और जो जैसा चल रह था उससे आगे नहीं बढ़ सके। आज देश के बच्चे वह शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं जो अधिकांश को भारत और उसकी संस्कृति से उस गहनता से नहीं जोड़ पाती है जिससे वे उसे समझ सकें, प्यार कर सकें और उस पर गर्व का अनुभव कर सकें। वे बहुत कुछ ऐसा पढ़ रहे हैं जो उन्हें जीवन जीने की कला में भी अधिक सहायक नहीं हो रहा है। वे अनावश्यक और लगातार बढ़ते बोझ ढोने को बाध्य हैं।

बच्चो को कितना कुछ पढ़ाया जाना, सिखाना चाहिए, नया खोजने में सहयोग करना चाहिए और कहाँ उसे स्वयं आगे बढ़ने देना चाहिए? इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ने के प्रयास में शिक्षा की गतिशीलता स्वत: ही उभर आएगी। हर अवस्था में शिक्षा की विषयवस्तु और सम्पूर्ण विधा समय के साथ और आवश्यकता के अनुसार बदलती रहनी चाहिए। पिछले तीन दशकों से बस्ते के बोझ को कम करने के प्रयास होते रहे हैं, मगर सफलता नहीं मिल पाती है। कारण अनेक हो सकते हैं; कुछ शैक्षिक और अनेक गैर-शैक्षिक! शिक्षा व्यवस्था के उत्तरदायी विद्वत्तजनों को बच्चो को शिक्षा देनी है मगर उसके बोझ से   मुक्त करना है। यह अपने में एक मूलभूत उत्तरदायित्व है, बच्चे को उसका बचपन तो पूरी तरह से जीने का अधिकार है, और इसे आनंदपूर्ण बनाने के लिए औपचारिक अध्ययन के अतरिक्त उसे जो कुछ और परिवार, समाज एवं मित्रों से मिलता है; मिलना ही चाहिए। इसके लिए उसे समय तथा प्रोत्साहन मिलना चाहिए। सीखना और उसे अपने ढंग से व्यावहारिक उपयोग में लाने की हर बच्चे की मंशा नैसर्गिक होती है। गांधी जी ने इसे एक वाक्य में यों कहा– ‘शिक्षा का मूल अर्थ है ग्रहण करना।’ यदि विद्यार्थी आत्मा के सबसे अच्छे गुण ग्रहण कर सके तो यह माना जा सकता है कि उसे श्रेष्ठ शिक्षा मिली है। वे चाहते थे कि प्रारम्भ से बच्चे यह जानें कि आगे चलकर  सांसारिक कत्र्तव्यों का भारी बोझ उनके सर पर आवश्यक रूप से आएगा ही। अत: भविष्य के सम्बन्ध में विचार करना सीखना पड़ेगा, और यह सिखाया भी जाना चाहिए। जो भी ज्ञान और कौशल बच्चे को मिले, उसे यह समझ में आना चाहिए कि वह इसका उपयोग वैâसे करेगा। आगे इसके लिए जो भी ज्ञान स्वूâलों में दिया जाये, उसे बच्चे ‘विचारपूर्वक हृदयंगम’ करें, रेट नहीं। बच्चे को उतनी ही शिक्षा देनी चाहिए जितनी उसके काम आ सके। क्या पढ़ाया जाये और कितना पढ़ाया जाये की समझ इसमें निहित है। बच्चे पर अनावश्यक बोझ लादने से बचाने का मार्ग यहीं मिल सकता है। ‘धर्म और नीति की जितनी शिक्षा तुम्हारे काम आ सकती है उतनी ही लेनी चाहिए। उतना ही ज्ञान आवश्यक है जितना व्यर्थ बोझ न बन जाये।’

गांधी साहित्य में अनेक स्थलों पर यह स्पष्ट दिखाई देता है कि वे कितनी तीव्रता से चाहते थे कि शिक्षा के मूलभूत सन्दर्भ और तत्त्व सही ढंग से समझे जायें। ‘सा विद्या सा विमुक्तये’ का विश्लेषण करते हुए वे उसकी सम-सामयिक सन्दर्भ में सरल व्याख्या करते हुए कहते हैं कि वह आज भी उतनी ही सत्य है जैसे पहले थी। गांधी जी के अनुसार, इसका आशय न तो उस मोक्ष से है जिसकी संकल्पना  सामान्य अर्थ में की जाती है, न इसका आशय शुद्ध आध्यात्मिकता से है। ज्ञान ग्रहण करने का मुख्य उद्देश्य उसका जीवन जीने में तथा मानव जाति की सेवा करने में उचित, संयत और समावेशी उपयोग में ही निहित माना जाना चाहिए। विमुक्ति अत्यंत सारगर्भित उद्देश्य और लक्ष्य अपने में समेटे हुए है–वर्तमान जीवन की सभी प्रकार की पराधीनताओं से मुक्ति। इसमें गांधी ‘आदमी की कृत्रिम आवश्यकताओं का दासता’ से मुक्ति को प्रमुखता से शामिल करते थे। गांधी की संकल्पना में शिक्षा के आधारभूत स्तम्भ तो सत्य, प्रेम हैं जिनसे जीवन के सारे कार्यकलाप परिपूर्ण होने चाहिए! गांधी जी मानते थे कि यह कार्य विदेशों से आयातित और भारत में रोपित शिक्षा व्यवस्था नहीं कर सकेगी। आज हम जानते हैं कि वे सही दूरदृष्टि रखते थे। शिक्षा वही सही है जो जीवन को इस तरह से समृद्ध बनाए कि प्रारम्भ से समाज में यह आत्मविश्वास बने कि बेरोजगारी जैसी कोई समस्या का किसी शिक्षित युवा के लिए कोई अर्थ ही नहीं रहेगा। ‘हमारी शिक्षा पद्धति–नई तालीम-बुद्धि, शरीर और आत्मा, तीनों का विकास करती है। इसकी तुलना में, सामान्य शिक्षा पद्धति केवल बुद्धि की ओर ध्यान देती है।’ बुनियादी तालीम के प्रति  गांधी जी का अत्यंत गहरा अनुराग अनेक अवसरों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से व्यक्त होता रहा।  यह कैसी विडम्बना है कि आज भारत के बच्चों का एक बड़ा वर्ग केवल अधिक-से-अधिक अंक प्राप्त करने के लिए स्वूâल, ट्यूशन, कोचिंग क्लास के बीच बँधुआ बन गया है, उसकी नैसर्गिकता पग-पग पर प्रतिबंधित कर दी गई है, केवल अधिकाधिक अंक चाहिए; वह भी ९९ज्ञ् से अधिक। यह सब कुछ व्यक्ति, समाज, देश के लिए अहितकर ही सिद्ध हो रहा है। वह दृष्टिकोण सच्ची शिक्षा द्वारा तो प्राप्त नहीं हुआ होगा, अवश्य उसमें संकल्पनात्मक स्तर पर कमियाँ रही ही होंगी। इनमें से अधिकांश से सभी परिचित हो चुके हैं मगर मूलचूल परिवर्तन का साहस कहीं दिखाई नहीं दे रहा है।

विकल्प तो खोजना ही होगा। गांधी जी ने सच्ची शिक्षा का जो अर्थ हमारे समक्ष रखा था उस पर गंभीर विमर्श करने पर पता चलेगा कि गतिशीलता उसमें अन्तर्निहित है। गांधी जी यदि आज होते तो वे कंप्यूटर को अस्वीकृत नहीं करते, वे केवल यही कहते कि उसका उपयोग हो, लेकिन ऐसा दुरूपयोग न हो जिससे बच्चे का पूर्ण  विकास असंभव हो जाये, जो आज हो रहा है। ऐसा न हो कि बचपन से ही बच्चों को ऐसी लत पड़ जाये कि जो समय खेलकूद, परिवार, भाई-बहन तथा मित्रों के बीच गुजरना चाहिए वह मोबाइल या कंप्यूटर स्क्रीन के सामने ही बीत जाये और बच्चे का संवेदनात्मक विकास पूरी तरह कहीं खो जाये। व्यक्ति के विकास तथा सामाजिक उत्तरदायित्व निर्वाह के बीच में असंख्य अपेक्षाएँ उभरती हैं। इन्हें कहा भले ही अलग-अलग ढंग से जाये, सभी अपेक्षाओं में सामंजस्य स्पष्ट दिखाई दे जाता है। सही शिक्षा सत्य की खोज है, सदाचरण–यानी धर्म–की जननी है, कत्र्तव्य-परायणता का उद्गम है, संयम, सेवा, समता की तैयारी। वह शांति, अहिंसा और भाईचारे की प्रवाहक है। सच्ची शिक्षा अपरिग्रह की स्वीकार्यता के साथ मानव और प्रकृति के बीच  संवेदनशील जुड़ाव के रख-रखाव की जिम्मेवारी मनुष्य द्वारा  उठाने के लिए की गई तैयारी है। शिक्षा जीवनपर्यंत व्यक्ति के आनंद, यश, संतुष्टि को प्रगाढ़ करती रहती है। गांधी के बताये मार्ग पर चलकर ही भविष्य की सही शिक्षा का स्वरूप ढूँढ़ा जा सकता है। (प्रोफेसर राजपूत शिक्षा तथा सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)।

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