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प्रगतिशील अर्थनीति एकमात्र विकल्प

अनादिकाल से अब तक समय के प्रवाह के साथ इस जगत् में जो भी कुछ हुआ, वह समाज की भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक अग्रगति के लिए समर्पित था।

मानव समाज के उद्भव से लेकर अद्यपर्यन्त विकास तक की एक लम्बी कहानी है। समाज का चक्र मुख्यत: चार युगों से होकर गुजरा है। ये हैं–क्षत्रिय युग, विप्र युग, वैश्य युग एवं शूद्र युग। हर एक युग में बौद्धिक स्तर पर संघात-प्रतिसंघात, गतिरोध-अग्रसारण तथा उत्थान-पतन की बेशुमार घटनाएँ घटित हुई हैं। जीवन के सभी आयामों के अन्तर्गत समस्याए सिर उठाकर खड़ी हुईं और उनके समाधान के प्रयास भी किए गए। अनादिकाल से अब तक समय के प्रवाह के साथ इस जगत् में जो भी कुछ हुआ, वह समाज की भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक अग्रगति के लिए समर्पित था।
मनुष्य की मनीषा ने समय-समय पर जीवन को तनाव, क्लेश, कष्टों और पीड़ाओं से मुक्त करने के लिए बहुत सारे उपाय सुझाए हैं। वैचारिक चिन्तन-मनन, विश्लेषण-संश्लेषण और शोध कार्यों के परिणामत: कई दर्शन प्रतिपादित हुए हैं। व्यक्ति में निहित असीम भौतिक सुख बटोरने की चाह ने अपार धन-सम्पदा के संग्रह की वृत्ति को जन्म दिया। इससे पूँजीवादी दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ। पूँजीवाद की बढ़ती धारणा तथा व्यवहार रूप के फलस्वरूप मनुष्य का शोषण उत्पन्न हुआ, फैला और समय के साथ गहराता गया। मानवीय शोषण की पराकाष्ठा की प्रतिक्रिया में साम्यवाद की अवधारणा उभरी। इसी के साथ समाजवादी विचारधारा भी पनप रही थी। यही नहीं, विश्वपटल पर देश-काल-पात्रानुसार विभिन्न मतों का जन्म हुआ। अधिक-से-अधिक सुख की लालसा व तलाश ने एक ओर आध्यात्मिक प्रयासों का पथ प्रशस्त किया तो दूसरी ओर, अनेक सामाजिक-आर्थिक सिद्धान्तों को भी विकसित किया।
दार्शनिक विचारधाराओं में मानव मन पर अमिट प्रभाव छोड़ने और व्यवहार-परिवर्तन लाने की अतुल्य शक्ति होती है। इतिहास साक्षी है कि अजस्र विचार-शक्ति से युक्त वादों/मतों ने समय-समय पर स्थान-विशेष के बुद्धिजीवियों में वैचारिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप क्रान्तिकारियों को जन्म दिया है। अभीष्ट लक्ष्यों की पूर्ति के लिए नियोजित प्रयासों के तहत विभिन्न देशों में क्रान्तिकारी घटनाएँ घटीं; जैसे–साम्यवादी क्रान्ति, पुनर्जागरण, फ्रांसीसी क्रान्ति और राष्ट्रीय आजादी के लिए संग्राम। निश्चय ही सामाजिक भेदभाव, विषमता, अन्याय, जातिवाद, सती प्रथा, बालविवाह, विधवा पुनर्विवाह तथा क्षेत्रीय सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक समस्याओं को लेकर छोटे-बड़े आन्दोलन हुए हैं किन्तु दुनिया में स्वस्थ नैतिक समाज का स्वप्न अभी तक साकार नहीं किया जा सका।

नैतिकतायुक्त समाज की ओर

समाज शब्द का अभिप्राय एक साथ मिलकर चलना है। धरती के सभी लोग एक साथ मिलकर रहने तथा एक साथ आगे बढ़ने की प्रवृत्ति से युक्त हैं। स्वभावत: साथ मिलकर चलने वाले सभी लोगों की बुद्धि, योग्यता और क्षमता एकसमान नहीं होतीं। समाज में विविध भाँति के नाना गुणसम्पन्न लोग होते हैं फिर भी किसी-न-किसी रूप में एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। हर कोई अपनी अपूर्णता को अन्य के माध्यम से पूरा करता है। जब एक विशाल जनगोष्ठी एक-दूसरे की अपूर्णता या कमी को पूरा करने की चेष्टा करते हुए एक निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर साथ-साथ गति करती है तो हम उसे ‘समाज’ कहते हैं। सच्चे अर्थों में किसी भी समाज के समस्त लोग सर्वजन के प्रति प्रेम-भावना से भरे होते हैं। वे एक-दूसरे के प्रति सुविचारित दायित्वबोध रखते हैं और न्यायोचित व्यवहार को ध्यान में रखते हैं।
स्वस्थ, सुन्दर एवं नैतिकतावादी समाज की स्थापना के तीन आधार हैं–एकता का बोध, सुरक्षा की भावना और शान्ति।

  • एकता– समाज में एकता के बोध से सन्तुलन बनता है। जाति, वर्ग, वर्ण तथा सम्प्रदायवादी तत्त्वों के प्रभाव में समाज विखण्डित हो जाता है और एकता स्थापित नहीं होती। समाज के जागरूक व्यक्तियों को चाहिए कि वे मिलकर वर्ण, वर्ग, पथ, जाति और देश की सीमाओं से ऊपर उठकर सर्वजन हिताय की भावधारा से जनसमुदाय को एकता के सूत्र में बाँधने हेतु प्रचेष्ट हों।
  • सुरक्षा– समाज में सुरक्षा नहीं रहने से सामाजिक विघटन तथा विखण्डन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। साथ ही, अन्यायकारी शक्तियाँ सामाजिक हितों व कल्याणकारी भावनाओं पर हावी हो जाती हैं। ऐसे में समाज का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था में सभी नागरिकों को एकसमान अधिकार की गारण्टी होती है। साथ ही, उन्हें अच्छा जीवन जीने के लिए आवश्यक संसाधन सुलभ कराए जाते हैं।
  • शान्ति– श्रेष्ठ मानव समाज में भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक सामंजस्य रहता है। सामाजिक शान्ति व साम्यावस्था की स्थिति में ही प्रगति सम्भव है। एकता व सुरक्षा की भावना से युक्त और समस्त नागरिकों के कल्याणबोध से परिपूर्ण आध्यात्मिक जीवन स्वस्थ समाज का संकेत है। ऐसे समाज में ही मनुष्य-मात्र के भीतर आत्मीय सुख की शान्त एवं गहन अनुभूति व्याप्त होती है, जिसे आध्यात्मिक शान्ति कह सकते हैं।

एक आदर्श व उत्तम दर्शन पर आधारित अनुशासित तथा नैतिकतावादी समाज की कुछ अपेक्षाएँ हैं। ऐसे समाज में व्यक्तियों और सामाजिक समूहों के बीच समानता पर आधारित सहयोग पाया जाता है। जाति, सम्प्रदाय, लिंग, भाषा आदि का भेदभाव नहीं होता। नैतिक, सांस्कृतिक और मानवीय मूल्य स्थापित रहते हैं। आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था में सभी के लिए रोजगार उपलब्ध होता है। नैतिकवादियों का शासन होता है और एक ऐसी स्वायत्त व्यवस्था स्थापित की जाती है जो नैतिकता के विरुद्ध उबरने वाले किसी भी तरह के सामाजिक संकट से निपट सके।

मानव समाज की सामूहिक धरोहर और उसका उपयोग

यह सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड तथा इसमें विद्यमान सभी तत्त्व; जैसे–नदियाँ, पहाड़, भूमि, जंगल, समुद्र एवं धरती के गर्भ में स्थित सभी प्रकार की धातुएँ, कोयला, पेट्रोलियम आदि पदार्थ सभी ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं। ये सम्पूर्ण मानवजाति की सामूहिक धरोहर हैं। इनका उपयोग सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण के लिए ही किया जाना चाहिए। इसलिए किसी व्यक्ति-विशेष, राज्य या राष्ट्र की मिल्यिकत को स्वीकारा नहीं जा सकता है। परमात्मा द्वारा दिए गए संसाधनों का उपयोग कर मनुष्य ने उपयोगी सामग्री; जैसे–अन्न, वस्त्र, दवाएँ, ईंधन आदि का उत्पादन किया है। अत: इनका उपयोग करने का सबको अधिकार है। इस हेतु निम्नलिखित बिन्दुओं पर हमें एकाग्रचित्त होकर काम करना होगा–

  • हमें एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक नीति की आवश्यकता है जो जाति-पाँति, वर्ग तथा सम्प्रदाय पर आधारित विषमताओं को दूर करे और सामाजिक अन्याय को समाप्त कर मानव-प्रगति में सहायक हो।
  • ऐसी आर्थिक नीति का निर्माण करना जो सभी मनुष्यों को युग के अनुसार न्यूनतम जरूरतों; जैसे–भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, पानी, यातायात एवं संचार सुविधाओं को खरीदने की क्षमता की गारण्टी दे सके। समय के अनुसार सभी को निम्नतम जरूरतों की पूर्ति की गारण्टी देनी होगी।
  • यही दर्शन सामाजिक उन्नति के लिए न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद अतिरिक्त सम्पदा को गुणियों, विशेषज्ञों और शासन-प्रशासन में उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों को अधिक सुविधाएँ देने के लिए उपयोगी करने की व्यवस्था देता है। इससे सामाजिक विकास तेज होता जाएगा। सबकी न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के बाद बची संपत्ति को गुण के अनुपात में विशेष प्रतिभासंपन्न लोगों को देना होगा।
  • मनुष्य अनन्त पथ का पथिक है। इसकी गति रुकने न पाए, इसके लिए सर्वभिन्न आवश्यकताओं के मापदंड को बढ़ाते जाना होगा। साथ-ही-साथ गुणियों और विशेषज्ञों को दी जाने वाली सुविधाओं को भी बढ़ाना होगा। न्यूनतम आवश्यकताओं का स्तर निरंतर बढ़ते जाना समाज के जीवित होने का लक्षण है। यही दरअसल सामाजिक प्रगति का परिचय देता है।
  • सर्वसाधारण के लिए समयानुसार बुनयादी जरूरतों को खरीदने की शक्ति सुनिश्चित करने के लिए किसी व्यक्ति की सम्पत्ति रखने की अधिकतम सीमा निर्धारित करनी होगी।
  • सर्वसाधारण के जीवन को सुखमय, व्यवस्थित एवं सुनिश्चित बनाने के लिए व्यक्ति तथा समाज सबकी शरीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षमताओं का अधिकतम उपयोग किया जाएगा। सबकी क्षमताओं के अधिकतम उपयोग से न केवल बेकारी, बेरोजगारी समाप्त होकर गरीबी दूर होगी अपितु अधिकतम उत्पादन तथा सेवाओं की प्राप्ति हो सकेगी। इससे सामाजिक विकास की गति में तीव्रता आएगी।
  • मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करके उसे अधिकाधिक सुविधाएँ प्रदान करने के उद्देश्य से पृथ्वी पर उपलब्ध भौतिक, सूक्ष्म तथा कारण सभी प्रकार की सम्पदाओं का अधिकतम उपयोग और विवेकपूर्ण वितरण किया जाएगा। वर्तमान समय में अधिकाँश पढ़े-लिखे तथा विशेष क्षमता सम्पन्न व्यक्ति भी बेकार पड़े हैं। साथ ही पृथ्वी की क्षमताओं का उपयोग बहुत कम तथा गलत तरीके से हो रहा है। अत: स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों ही सम्पदाओं का अधिकतम उपयोग किया जायेगा तथा उनका विचारपूर्वक बँटवारा किया जाएगा।
  • किन्हीं भी सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक नीतियों एवं कार्यक्रम को लागू करने के लिए नैतिक और आध्यात्मिक व्यक्तियों की आवश्यकता है, इसलिए नैतिक नेतृत्व पर बल दिया जाना अपरिहार्य है।

समाज-चक्र के केंद्र में सद्विप्र रहेंगे। समाज के बीच से ऐसे असाधारण पुरुष सद्विप्र कहे जाएँगे जिनका जीवन नैतिकता की आधारशिला पर आध्यात्मिकता में प्रतिष्ठित होगा। वे सर्वस्व त्यागी तथा अन्याय व शोषण के विरुद्ध समझौताविहीन संग्रामरत ऐसे अद्भुत व्यक्ति होंगे जो क्षत्रिय, विप्र, वैश्य और शूद्र चारों की वृत्तियों का सुन्दर समन्वय होंगे। ये सद्विप्र कहे जाने वाले लोग ही समाज के हित में समाज का नेतृत्व करेंगे। इसलिए सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक व्यवस्था के नेतृत्व की बागडौर केवल नैतिक बुद्धिजीवियों के हाथों में रखनी होगी। ऐसा होने पर आर्थिक घपलेबाजी तथा भ्रष्टाचार पर वास्तव में अंकुश लग सकेगा।
वस्तुत: समाज की वर्तमान दशा के परिप्रेक्ष्य में सर्वकल्याणमूलक नेतृत्व सबसे महत्त्वपूर्ण विषय है। नेता ही किसी खराब या अच्छी व्यवस्था को स्थापित करता है। अगर नैतिक विप्लवी आंदोलन का नेतृत्व करते हैं तो सही अर्थ में एक मानवीय सामाजिक व्यवस्था की स्थापना होगी।

सम्यक् विवेक-आधारित दर्शन इस वैचारिक कपटता को स्वीकार नहीं करते। अगर परमात्मा एक छोटे-से-छोटे असहाय जीव के जीवन की परवाह करते हैं, तो मनुष्य ऐसा क्यों न करे?

एक कदम आगे की ओर

आर्थिक और राजनैतिक शक्तियों को अलग-अलग होना चाहिए। दोनों शक्तियाँ एक ही संस्था को देना बुद्धिमानी नहीं है। इसलिए समाज की गतिविधियों के माध्यम से अर्थशक्ति स्थानीय लोगों के हाथ में निहित होनी चाहिए और वे ही इस मामले में सर्वोच्च होने चाहिए।
‘सामूहिक मानसिकता पर नियन्त्रण रखने में जो सक्षम होगा, वो ही बचेगा’ का सिद्धांत हावी है, इसी कारण अभी तक व्यावहारिक जीवन में मनुष्य के वास्तविक मूल्य को महत्त्व नहीं दिया गया है और इसीलिए जिसने भी अधिक हुनर, ज्ञान या क्षमता प्राप्त की है, उसने बेहिचक दूसरों को दबाया, उत्पीड़ित और शोषित किया है। यही नहीं, वे बड़े जोर-शोर से अपने काम को यह कहकर सही ठहराते हैं कि उनकी सम्पत्ति उनकी प्रतिभा और मेहनत का परिणाम है और दूसरों को भी उनकी तरह संघर्ष करने और सफल होने के लिए समान अवसर उपलब्ध हैं। दिलचस्प बात यह है कि पहले सफल डाकू भी अपने सामाजिक अपराधों को सही ठहराने के लिए इसी तरह का तर्क देते थे।
सम्यक् विवेक-आधारित दर्शन इस वैचारिक कपटता को स्वीकार नहीं करते। अगर परमात्मा एक छोटे-से-छोटे असहाय जीव के जीवन की परवाह करते हैं, तो मनुष्य ऐसा क्यों न करे? किसी भी मनुष्य को क्या अधिकार है कि वह दूसरों को जीवित रहने के अधिकार से वंचित करे। परम दयालु परमात्मा जानते हैं कि एक शिशु के पाचन अंग अविकसित हैं, इसलिए वे उसके पैदा होने से पहले ही माता के स्तनों में उसके लिए सुपाच्य दूध पैदा कर देते हैं। इसी तरह परमात्मा जीवित रहने के अधिकार के मामले में एक पापी के साथ भी भेदभाव नहीं करते हैं। हमें सृष्टि की सभी वस्तुओं और जीवों को परमात्मा की अभिव्यक्ति के रूप में देखना होगा। इसलिए हमें सभी को उनके अस्तित्व की गारण्टी देनी होगी। समकालीन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को ध्यानावस्थित रख प्रतिपादित दर्शन ‘प्रगतिशील उपयोग तत्त्व’ (प्रउत) के प्रणेता विचारक भी प्रभात रंजन सरकार ने आर्थिक शक्ति और आर्थिक अधिकारों की सभी को गारण्टी दी है, ताकि हर कोई आत्मनिर्भर बन सके और कोई भी यह न सोचे कि संसाधनों और अवसरों की कमी के कारण उसके जीवन का विकास नहीं हो पाया। अत: हमें ऐसी व्यवस्था स्थापित करनी होगी जिसमें हर कोई गरीबी, दमन और शोषण की चिंता किए बिना सम्मान के साथ जी सके। इसलिए विचारधारा की पृष्ठभूमि में उपजा समाज आंदोलन आर्थिक शक्ति को आम आदमी के हाथों में देता है।

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