Education

समर्थ समाज और राष्ट्र का निर्माता है शिक्षक

शिक्षा के क्षेत्र में स्त्रियों का होना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वो शिक्षिका के पहले एक माँ है। माँ वो होती है जिसको अपने पुत्र-पुत्री के किसी भी शारीरिक कष्ट होने का पूर्वाभास हो जाता है। क्या मातृत्व ही आधार है स्त्री के व्यक्तित्व का? स्त्री का शेष जीवन ‘कामिनी’ कहलाता है लेकिन वो शाश्वत नहीं है। शाश्वत है तो केवल ‘मातृत्व’। जिस आधार पर वो टिकी है, वो प्रेम और ममता है। पुरुष जहाँ खड़ा है और स्त्री जहाँ खड़ी है, वो दोनों ही विपरीत धु्रव हैं। इतने विपरीत होने के बाद भी इन दोनों के बीच गहरा आकर्षण है। पुरुष यदि गणित के केन्द्र पर होता है तो स्त्री काव्य के केन्द्र पर होती है। पुरुष यदि संग्राहक होता है तो स्त्री संपर्क होती है। इसीलिए प्रकृति ने गर्व स्त्री को दिया है क्योंकि वो धारण कर सकती है। पुरुष के पास ‘मसल पॉवर’ होता है, जो मशीनों के पास भी होता है लेकिन जो क्षमता स्त्री के पास है, उसके सामने तो पुरुष भी नतमस्तक हो जाता है। कितनी भी भयंकर-से-भयंकर पीड़ा झेलने का साहस स्त्री में होता है। उसमें धैर्य होता है, संवेदना होती है।
ऐसी स्त्री को यदि शिक्षक का दायित्व मिल जाए तो सोचिए कि वो कितने सधे हाथों से देश के भविष्य का निर्माण करेगी। ‘हम साथ हैं’, यही वो भावना है जो किसी भी व्यक्तित्व को गजब तरीके से नि़खार सकती है। मैं लगभग पूरी दुनिया में घूमकर शिक्षा-जगत् भी देख चुकी हूँ। सब कुछ देख लेने के बाद जब आप तुलना करते हो तो लगता है कि हमें अभी क्या करना बाकी है, हमारी क्या विशेषता है और कहाँ हम चूक रहे हैं? मैं अनुभव करती हूँ कि अभी हमारे यहाँ जो शिक्षा-व्यवस्था है वो हमारी प्रकृति के अनुरूप नहीं है। पाठ्यपुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त भी जो बच्चों में कुछ निर्माण करता है वो हमारे आसपास का वातावरण ही है। यदि हम सहमति के वातावरण में होते हैं तो हममें आत्मविश्वास होता है। थप्पड़ खाकर जो बच्चे बड़े होते हैं ना, उनमें कभी भी आत्मविश्वास नहीं होता क्योंकि उनको जिन्होंने पैदा किया उन्होंने ही उन बच्चों के आत्मविश्वास को कुचला। केवल भारत ही नहीं बल्कि हम दुनिया भर में देखते हैं कि अवसाद कैसे उतरता है। पति अपनी खीझ पत्नी पर उतारता है। पत्नी उसे अपने बच्चों पर उतार देती है और उसके कारण बच्चों का व्यक्तित्व बुरी तरह से प्रभावित होता है। यह अवसाद ऊपर से नीचे की ओर आता है।

बहुत कठिन है कि आपकी कक्षा में तीस-चालीस बच्चे हैं और आपने उन्हें एक रिद्म में लेकर आगे बढ़ना है। यह तभी संभव होगा जब शिक्षक की अपनी एक रिद्म निश्चित हो। हमारे ही साज बेसुरे हों तो फिर संगीत कैसे बनेगा? हम तो सुर में हों। हम रिद्म में जब होंगे तब हमने स्वयं ही अपनी रुचियों को जी-भरकर अपने भीतर जिया हो। कभी भी कोई व्यक्ति और किसी के प्रति न्याय नहीं कर सकता यदि उसने स्वयं के प्रति ही न्याय न किया हो। यदि मैं स्वयं तृप्त नहीं हूँ तो मेरे पास आने वाले को तृप्ति मिल ही नहीं सकती।

जिस रास्ते पर मैं चल रहा हूँ, क्या ये मेरी विवशता है या फिर मैंने इसे स्वयं ही चुना है? अरे, मैं तो कुछ और ही बनना चाहता था लेकिन विधाता ने मुझे इस मार्ग पर ला खड़ा किया। ये क्या है? ये विवशता है। नियति ने यहाँ खड़ा कर दिया नहीं तो हम कहीं और होते। ये क्या है? ये द्वन्द्व है। जो द्वन्द्वों के बीच है, वो तो फिर बिखरा हुआ है। वो तो अतृप्त है। वो तो असंतुष्ट है। कदाचित् यदि मुझे नियति ने यहाँ खड़ा भी कर दिया और मैंने उसे स्वीकार कर लिया तो फिर वो मेरी मजबूरी नहीं है। मैंने उसे हृदय से स्वीकार किया, वो तो मेरी पूजा-अर्चना हो गई। इस कार्य के साथ ही मैं ईश्वर के हाथ का उपकरण बना इसलिए खिल गया। यह भाव तब उत्पन्न होगा जब हम स्थितियों को मन से स्वीकार कर लेंगे। यदि स्वीकार नहीं किया तो फिर मन कुण्ठित होगा। बात जब एक शिक्षक की चल रही हो तो फिर समझ लीजिए कि वो तो अपनी कक्षा के बच्चों का आदर्श होता है। वो उन तीस-चालीस बच्चों का सुपर स्टार होता है। आपके हावभाव, आपका तौर-तरीका बच्चे देखते हैं। वो सब समझते हैं कि क्या हो रहा है।
कई बार बच्चों से उनके माता-पिता कहते हैं ना कि हमारे लिए किसी से झूठ बोल दो; तो होता यह है कि पहले तो बच्चे उनके लिए किसी से झूठ बोलते हैं फिर एक समय ऐसा भी आता है कि बच्चे उनसे ही झूठ बोलने लगते हैं। मुझे लगता है कि किताबी ज्ञान तो ठीक है लेकिन सहजता, सरलता, निश्चलता भी बच्चों के मन में डाली जानी चाहिए, जो बच्चों को बहुत कुछ देती है।
मैंने जब वात्सल्य का कार्य शुरू किया तो बहुत ज्यादा साधन उस समय हमारे पास नहीं थे। 22 बच्चे और दो कमरों का घर। मैं और मेरी गुरु बहन उन बच्चों का नहलाना-धुलाना, तैयार करना और स्कूल भेजने तक के सारे काम करते। एक मारुति कार हमारे पास होती थी। उसमें वो सारे बच्चे भरकर हम जब उन्हें स्कूल छोड़ने जाते तो लोग देखकर दंग रह जाते कि कैसे इतने सारे लोग एक कार से आते-जाते हैं, लेकिन हमें कभी नहीं लगा कि हमारी गाड़ी छोटी है या उसके कारण हमें कोई दिक्कत नहीं होती है। मैंने स्वयं तीन-तीन घण्टे तक बच्चों को अपनी गोद में बैठाकर पहाड़ों की यात्राएँ की हैं। मुझे कभी नहीं लगा कि मैं थक गई हूँ। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि जब हम संवेदनशील होते हैं तो फिर साधनों का अभाव नहीं लगता। जो भी व्यवस्थाएँ साथ हैं, फिर हम उनमें ही आनन्दपूर्वक जीते हैं।


वात्सल्यमूर्ति साध्वी ऋतम्भरा : व्यक्तित्व एवं कृतित्व – विश्व भर को अपनी तेजस्वी आध्यात्मिक वाणी से ओतप्रोत कर देने वाली वात्सल्यमूर्ति साध्वी ऋतम्भरा ने भारत राष्ट्र को एक अनूठी समाज-व्यवस्था प्रदान की है। उनके मार्गदर्शन में वृन्दावन (उ०प्र०) स्थित वात्सल्य ग्राम के अन्तर्गत परमशक्तिपीठ अपने विभिन्न सेवा प्रकल्पों के माध्यम से मानवता की सेवा में रत हैं। उनका जन्म पंजाब के लुधियाना जिले के गाँव मण्डी दोराहा में 2 जनवरी, 1964 को हुआ था। बालपन से माँ भगवती के प्रति अटूट श्रद्धाभाव से परिपूर्ण बालिका ‘निशा’ की धर्म में गहन अभिरुचि थी। अनवरत कठिन साधना के बल पर क्रमिक आत्मोन्नयन के परिणामत: उन्होंने सन्त शिरोमणि स्वामी परमानन्द जी से दीक्षा लेकर संन्यास का सर्वकल्याण पथ चुन लिया। तपश्चर्या की सिद्धि और सत्साहित्य के अध्ययन से उनके कंठ में माँ सरस्वती का वास हो गया। उनके ओजस्वी व्याख्यान व प्रवचन सुनकर कोटि-कोटि जन का मन झंकृत कर उठा। सामाजिक भेदभावों तथा छुआछूत की दीवारें ढहने लगीं और भारत एकात्मकता के सूत्र में आबद्ध दिखाई पड़ा।
राष्ट्रीय जनजागरण के दौरान उन्हें भारतीय समाज पर अनाथाश्रम, नारी निकेतन और वृद्धाश्रम जैसे काले धब्बे दिखाई दिए। इसी विचार से ‘परमशक्तिपीठ’ संस्था उद्भूत हुई जिसके माध्यम से जीवन के दोराहे पर त्याग दिए गए नवजात शिशुओं, परित्यक्त बहनों तथा एकाकी जीवन यापन का दंश झेल रही वृद्धा माताओं को मिलाकर एक परिवार का रूप बना, जहाँ सब एक-दूसरे के लिए जी सकें। यह दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा का वात्सल्य ग्राम कहलाया जिसमें अन्तनिहित नई सामाजिक व्यवस्था को देखकर समूचा राष्ट्र चकित है।
भारत ही नहीं, आज पूरा विश्व परमशक्तिपीठ के इस सेवा प्रकल्प को भरपूर सहयोग प्रदान कर रहा है। नन्हें निराश्रित शिशुओं को अपने घर की शक्ल में वात्सल्य ग्राम अपनी समस्त भूमिकाओं का निर्वहन कर रहा है। परमशक्तिपीठ ने शिशुओं के सुसंस्कारित लालन-पालन से लेकर उनकी समुचित शिक्षा और घर-परिवार बसाने तक की पूरी जिम्मेदारियाँ सँभाल रखी हैं।
इसी के साथ वात्सल्य ग्राम का विस्तृत प्रांगण अत्याधुनिक चिकित्सालयों द्वारा गठित नि:शुल्क चिकित्सा शिविरों के माध्यम से हजारों अभावग्रस्त रोगियों को स्वस्थ कर चुका है। इसी ग्राम के आँचल में कृष्णा-ब्रह्मरतन विद्या मन्दिर तथा ओंकारेश्वर का समविद् गुरुकुलम् शिक्षण व्यवस्था है। ये दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा के संरक्षण में संचालित आधुनिक शिक्षा देने वाले ऐसे शिक्षा संस्थान हैं जहाँ बच्चों में सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों को ढाला जा रहा है।


हम सबने स्कूल-दिनों को जिया है। बहुत सुन्दर समय होता है वह। बचपन के सहपाठी, स्कूल के शिक्षक हमेशा याद रहते हैं। क्यों? क्योंकि बचपन निद्र्वन्द्व, निर्मल और निष्कपट होता है, लेकिन बढ़ती आयु थोड़ी-सी बेईमानी भी साथ लाती है। बच्चे जब कुछ भी देते हैं तो अपना सौ प्रतिशत देते हैं लेकिन बड़े उतनी ईमानदारी से तन्मय नहीं होते। हम बड़ों की ज्यादा जिम्मेदारी बनती है ना कि बच्चों की। जो दो आँखें मुझे देख रही हैं, उनके सामने एक शिक्षक के रूप में मेरा व्यक्तित्व कैसा हो? वह अपने बच्चे को चिड़ियाघर दिखाने ले गया। लाइन में लगे एक व्यक्ति ने कहा– ‘अरे, इस बच्चे का टिकिट क्यों ले रहे हों?’ उसने कहा–‘भाई, यह छ: साल का है इसलिए।’ उसने कहा–‘लेकिन यह तो चार साल का है?’ उस व्यक्ति ने कहा–‘भले ही यह बात गेट कीपर नहीं जानता हो लेकिन मेरा बेटा जानता है कि वो छ: साल का है। यदि आज मैंने थोड़ा-सा पैसा बचाने के लिए उसका टिकिट नहीं लिया तो फिर बच्चा जीवन भर नैतिकता के आधार पर खड़ा नहीं हो सकेगा। उसके जीवन की बुनियाद कमजोर रह जाएगी।’
हमारे देश में सरकारी सम्पत्ति की सुरक्षा कोई नहीं करता। लोग सरकारी बसों की सीटें उधेड़ते हैं, रेलगाड़ियों में बैठ-बैठे कुछ-न-कुछ तोड़ते रहते हैं। ऐसा क्यों करते हैं लोग? क्योंकि इन लोगों को बचपन में बताया ही नहीं गया कि वे जिस शासकीय सम्पत्ति को नुकसान पहुंचते हैं वो वास्तव में उनकी अपनी ही है। यदि आप अपने घर की सुरक्षा करते हो तो फिर बच्चों को बताना पड़ेगा ना कि स्कूल भी तुम्हारा है, उसमें लगा हुआ फर्नीचर भी तुम्हारा है, जिस सड़क पर और जिस वाहन में चल रहे हो वो भी तुम्हारा है। जब इस भाव से बच्चा भरेगा, तभी वो सरकारी सम्पत्ति की रक्षा कर सकेगा। ‘मालकियत’ का भाव जब मन में हो, तब फिर अपनापन लगता है।

शिक्षकों को अपने अहं भाव से जरा नीचे आकर बच्चों के साथ खड़ा होना होगा यानी शिक्षक जब बच्चों के स्तर पर आकर उनका मार्गदर्शन करेंगे तो उनके मन से वह डर निकल जाएगा।

शिक्षकों के हाथ में नन्हें विद्यार्थी बिल्कुल ऐसे ही होते हैं जैसे कुम्हार के हाथ में मिट्टी का लौंदा। मैंने देखा है कि कई बार घरों से धकियाकर माताएँ अपने बच्चों को स्कूल भेजती हैं। बस कंडक्टर खींचकर उन्हें बस में चढ़ाता है। स्कूल में कोई नकचढ़ी-सी टीचर का चेहरा उन्हें रोज देखना पड़ता है। क्या इन सब स्थितियों से दो-चार होते हुए बच्चों में समाज के प्रति नकारात्मकता का भाव पैदा नहीं होगा? हम बच्चों को ऐसा बनाएँ, जैसे कुम्हार मिट्टी के लौंदे की अनगढ़ता के बीच सुन्दर कलाकृतियों का निर्माण कर देता है। देश और समाज की स्थितियों के बीच शिक्षकों का सबसे बड़ा दायित्व है कि अपने विद्यार्थियों में आदर्श नागरिकों का सृजन करें।
मैं समझती हूँ कि शिक्षकों को अपने अहं भाव से जरा नीचे आकर बच्चों के साथ खड़ा होना होगा यानी शिक्षक जब बच्चों के स्तर पर आकर उनका मार्गदर्शन करेंगे तो उनके मन से वह डर निकल जाएगा, जिसके साये में अधिकांश बच्चों का बचपन बीत जाता है। गुरु-शिष्य के बीच बहुत दूरी नहीं होनी चाहिए। ऐसा होने पर ही बच्चे ज्ञानार्जन का आनन्द लेते हैं। भय उनके सीखने की प्रवृत्ति पर हावी नहीं होता। शिक्षक हमेशा यह ध्यान रखें कि उनके जीवन की कुण्ठा बच्चों पर नहीं उतरे। जब भी पूरी सकारात्मकता के साथ आप बच्चों को उनके मन के निकट जाकर पढ़ाएँगे तो उन्हें पढ़ने में आनन्द भी आएगा और आप स्वयं भी आनन्दित रहेंगे। किसी बच्चे के पढ़ाई में पिछड़ने पर उसका मजाक मत बनाइए बल्कि उसे प्रेरित करते रहिए कि वो आगे अच्छा परिणाम ला सके। संसार में कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है, शिक्षा उन सबसे बढ़कर है। मैं समझती हूँ कि शिक्षक ही एक समर्थ समाज और राष्ट्र का निर्माता होता है, यदि वह अपना उत्तरदायित्व सजगता से निभा सके।

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