शिक्षा का उद्देश्य एवं पद्धति
गुरुकुलीय शिक्षा-प्रणाली मानव को संस्कारित करने में अत्यधिक कृतकार्य है। यहाँ बहुत से अपने को बुद्धिजीवी कहे जाने वाले व्यक्ति भी शिक्षा-प्रणाली और पाठयक्रम में भेद नहीं कर पाते हैं।
मनुष्य के लिए प्रकृतिप्रदत्त समस्त वस्तुएँ उसी रूप में प्रयुक्त होने पर कृतकार्य नहीं होतीं, उनको कार्य में प्रयोग करने से पहले तदनुसार संस्कारित करना पड़ता है; जैसे—अन्न और अन्य प्रकृतिप्रदत्त वस्तुएँ संस्कार की अपेक्षा रखती हैं; जैसे—गेहूँ, धान, धान्यादि वस्तुएँ। ठीक उसी प्रकार से पशुओं को भी उपयोग में लाने से पहले तदनुकूल संस्कारित किया जाता है; जैसे—अश्व, वृषभ आदि जीव-जन्तु। ठीक इसी प्रकार से मनुष्य जिस रूप में उत्पन्न हुआ है, उसी रूप में उसका उपयोग करना संभव नहीं। यदि आलस्य या प्रमाद के कारण से उसका उचित संस्कार नहीं किया जाए तो वह भी समाज के लिए पूर्ण उपयोगी नहीं हो सकता और जिन विधाओं से मनुष्य व्यक्ति, समाज, राष्ट्र या विश्व के लिए उपयोगी हो इसके लिए जो संस्कार उसको प्रदान किये जाते हैं उसको शिक्षा कहते हैं। शिक्षा का उद्देश्य ही होता है मनुष्य का सर्वांगीण विकास। सर्वांगीण का यहाँ अर्थ है कि उसका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक विकास अर्थात् पूर्ण विकास। विकास की वह सीमा जिस स्थिति में पहुँचकर मनुष्य एकांगी न होकर सर्वांगी हो जाए अर्थात् उसका चिन्तन, उसका क्रियाकलाप विश्वजन-हिताय और सुखाय हो।
सर्वांगीण का अर्थ है कि उसका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक विकास, अर्थात् पूर्ण विकास।
शिक्षा ही मनुष्य को संस्कारित करती है और संस्कार का अर्थ होता है-तदनुरुप उत्कृष्ट गुणों का आधान। शिशु भी माता की गोद में जब आता है, तो वह भी प्रकृतिप्रदत्त अन्य वस्तुओं की भाँति संस्कार की अपेक्षा रखता है। गुरुकुलीय शिक्षा-प्रणाली मानव को संस्कारित करने में अत्यधिक कृतकार्य है। यहाँ बहुत से अपने को बुद्धिजीवी कहे जाने वाले व्यक्ति भी शिक्षा-प्रणाली और पाठयक्रम में भेद नहीं कर पाते हैं। शिक्षा पद्धति भिन्न वस्तु है और शिक्षा में पढ़ाये जाने वाले विषयों का निर्धारण करना अन्य विषय है। जिस प्रकार गुरुरुपी वूâप का ज्ञान, ज्ञानरुपी जल शिक्षार्थियों तक किस प्रकार से सुगमता से पहुँच सकता है, यह भिन्न विषय है। और क्षेत्ररुपी छात्र के मस्तिष्करुपी क्षेत्र में किस प्रकार का जल प्रदान किया जाए, जिससे उसकी बुद्धि का तद्नुरुप विकास हो यह भिन्न विषय है। अथर्ववेद में एक मंत्र में इसका निर्देश किया है- आचार्य: उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्त:।
अर्थात् जिस प्रकार गर्भस्थ शिशु के विकास के लिए माता तथा अन्य परिवारजन आहार-विहार का ध्यान रखते हैं, इसी प्रकार राष्ट्र के चिन्तकों को शिक्षार्थियों का ध्यान रखना चाहिए। यह सूत्र-रुप में वेद ने प्रकट कर दिया है।
आज उसी शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है तभी मानवता ह्रासोन्मुखी न होकर विकासोन्मुखी होगी जिसकी समस्त विश्व को आवश्यकता है।