आओ प्राकृतिक प्रयोगशाला में भी घूमें
हर बालक में रमन, रामानुजन, आइंस्टीन, न्यूटन व हॉकिंग छुपा बैठा है। जरूरत है उसे जगाने की, न कि उसे मारने की। भौतिक विज्ञान ऐसे अंधविश्वासों को ही तोड़ता है। लेकिन मैं फिर वही कहूँगा कि यह विषय किताब के सीमित अक्षरों में ही नहीं बल्कि एक बच्चे के आसपास बिखरा पड़ा है, उसके कदम-कदम पर हर क्रिया से जुड़ा है।
विज्ञान की एक अद्भुत, रहस्यमयी और रोचक शाखा है—’भौतिक विज्ञान’, लेकिन अगर १० से १४ साल तक के किसी बच्चे से पूछो कि भौतिक विज्ञान विषय वैâसा लगता है तो १०० में से ९९ स्कूलों में पढ़ने वाले १० में से ९ बच्चे झेंपते हुए संकोच में और अन्तत: वही जवाब देंगे जिसकी कि प्रश्नकर्ता को पूछने से पहले ही उसके उत्तर की आशा होती है। स्कूलों की उक्त संख्या से शायद कुछ पाठक मुझसे मतभेद रखने का प्रयत्न शुरू कर देंगे और विशेष रूप से वे स्कूल संचालक तो जरूर जिन्हें अपने स्कूल के प्रशासन, प्रबन्धन और परीक्षा परिणाम पर सदैव नाज रहता है, लेकिन मेरा मानना है कि स्कूलों में आज की अंक/ग्रेड आधारित शिक्षण पद्धति में जिस प्रकार से इस विषय का एक विद्यार्थी के साथ समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया जाता है उससे इस विषय की सरलता और सार्थकता के साथ केवल अन्याय ही होता है। पढ़ाई के बाद कार्य-क्षेत्र के बारे में पूछने पर कितने विद्यालयों के विद्यार्थी भविष्य में वैज्ञानिक बनने या अनुसंधान क्षेत्र में जाने की इच्छा प्रकट करते हैं, आप स्वयं जाँच सकते हैं, लेकिन पैकेज की चकाचौंध कुछ और ही करा रही है।
पाठ्यक्रम के आभासी आकार, उसे निश्चित समय में पूर्ण करने की शिक्षक-शिष्य की बाध्यता और गृहकार्य सम्पादक के साथ-साथ उसकी समयबद्ध जाँच, समय समय पर अनेक प्रकार के व्यवधान जैसे कि मासिक टैस्ट, विभिन्न स्तर की परीक्षाएँ, विद्यार्थियों की कक्षा में असंगत अनुपस्थिति आदि इस विषय को रोचक व आनन्ददायी बनाने में रुकावट सिद्ध होती हैं और परिणामस्वरूप यह विषय केवल कुछ मुख्य बिन्दुओं को रटकर उत्तर-पुस्तिका में लिखते हुए अधिकतम अंक प्राप्त करने का माध्यम मात्र रह जाता है। गृहकार्य के नाम पर मैं बच्चों को एक पाठ्यपुस्तक की दूसरी प्रति बनाते हुए ही देखता हूँ। इस विषय के मूल भाव को समझने या इसकी गहराई में उतरने का एक विद्यार्थी को समय ही नहीं मिल पाता और यह हल्का-सा विषय केवल बोझ बनकर रह जाता है। कभी-कभी तो इससे छुटकारा पाने के लिए विद्यार्थी का भाव व चिन्तन सत्र समाप्ति की ओर दृष्टिगत होकर रह जाता है। मुझे बड़ी दया आती है जब तथाकथित प्रसिद्ध स्वूâलों से आये छात्र मुझे यह नहीं बता पाते कि–विज्ञान कहाँ पाया जाता है, इस ब्रह्माण्ड में हम कहाँ पर हैं, पृथ्वी कहाँ पर टिकी है, घर में बिजली कहाँ से आती है। निश्चितत: दोष बच्चों में नहीं अपितु कहीं और छुपा है।
मनोरंजक विषय को केवल किताब से न बाँधकर विभिन्न प्रायोगिक क्रियाओं के साथ बच्चे से जोड़ा जाये तो मेरा विश्वास है कि हर घर में अनुसंधान होता हुआ दिखाई देगा।
एक विद्यार्थी में हर क्रिया के पीछे के रहस्य को जानने की प्रवृत्ति जाग्रत की जाये तो उसे इस ब्रह्माण्ड में छुपे रहस्यों को जानने की ललक बनेगी और दृष्टिकोण भी व्यापक होगा। इस काम में यह विषय अपना पूरा काम करता है। मुझे घोर आश्चर्य होता है जब एक विद्यार्थी से उसके अध्यापक के कुछ ऐसे प्रश्न होते हैं—’कल जो पढ़ाया था, सब ने याद कर लिया?’ या ‘इसे अच्छी तरह याद कर लो, ये परीक्षा के लिहाज से इम्पोर्टेण्ट है’ या ‘इसे याद करके अभी सुनाओ’। वास्तव में भौतिक विज्ञान जैसा विषय पढ़ते समय इस ”याद” शब्द का क्या औचित्य है, मैं समझ नहीं पाता। मैं अपने अध्यापन कार्य में बच्चों से कभी याद करने को नहीं कहता बल्कि समझकर अपनी भाषा में व्यक्त टूटे-फूटे लेकिन भावापूर्ण वक्तव्य को भी सही मानता हूँ और अपनी कक्षा के एक विद्यार्थी को इस विषय के प्रति सहज बनाने में सफल भी होता हूँ।
यदि पुस्तक में दाब की परिभाषा—”इकाई क्षेत्रफल पर आरोपित बल को दाब कहते हैं।” और चाल की परिभाषा—”एकांक समय में तय की गई दूरी को चाल कहते हैं।” लिखी है तो विद्यार्थी को उसी रूप में याद करके लिखना होगा तभी उसे पूरे अंक मिलेंगे, यहाँ ‘इकाई’ या ‘एकांक’ शब्द में क्या अन्तर या समानता है या क्या उपयोगिता है, इससे उसे कोई मललब नहीं। यदि वह इनसे मिलता जुलता अपना मनोभाव अंकित कर दे तो वो उत्तर ठीक क्यों नहीं। अंक कम आते ही उसका इस विषय से लगाव खत्म और उसके तोता बनने की प्रक्रिया शुरू।
मैं मानता हूँ कि समस्या इस विषय को एक पुस्तक में ढूँढ़वाकर उसे उत्तर-पुस्तिका में लिखवाने की है। कक्षा में किसी विषयवस्तु से परिचय कराते समय केवल पाठ्यपुस्तक में अंकित पाठ्य-वस्तु या उससे जुड़े उदाहरणों पर ही जोर दिया जाता है। इस सरल विषय को एक पुस्तक ही मान लिया जाता है और पूरे समय इस विषय के नाम पर केवल किसी एक निर्धारित पुस्तक को ही इस विषय की संज्ञा दे दी जाती है।
प्रैक्टिकल के नाम पर विद्यार्थियों का ईंट-पत्थर से बने एक विशेष कक्ष से परिचय कराया जाता है जहाँ पाठ्यक्रम में निर्धारित में से कुछ प्रयोगात्मक क्रियाएँ औपचारिकतावश पूरी कराई जाती हैं और बुरा न मानें, एक बडी संख्या में तो स्कूलों में ये भी नहीं होता क्योंकि प्रैक्टिकल के कालांशों को समय की बरबादी माना जाता है। प्रयोगात्मक परीक्षा में अनुत्तीर्ण तो छोड़िये सर्वाधिक अंक प्रदान किये जाते हैं जिससे विद्यार्थी व उसके अभिभावक दोनों खुश, जबकि वास्तव में भौतिक विज्ञान विषय का प्रायोगिक क्रिया से अभिन्न रिश्ता है और एक विद्यार्थी को ये रिश्ता अनुभूत कराने व समझाने में जाने-अनजाने हम स्वयं ही अनुत्तीर्ण हो जाते हैं।
जिस प्रकार एक फुटबॉल खिलाड़ी अपनी फुटबॉल से खेलता है और उससे जुड़ी हर बारीकी समझने के लिए प्रयत्नशील रहता हैं, उसी प्रकार क्यों नहीं इस विषय से विद्यार्थियों को खिलवाते हुए उसे उसके चारों ओर छुपे रहस्यों व कारणों को समझने की ललक पैदा की जाये। और यहाँ खेलने के लिए आवश्यकता होगी उपकरणों की। तो बच्चों को यह बताना आवश्यक है कि उपकरणों से भरी एक प्रयोगशाला तो सदैव उसके साथ रहती है जिसमें उसके चारों ओर हर वो चीज एक उपकरण के रूप में उपस्थित है जिसमें उसकी पुस्तक में लिखी हर विषयवस्तु का हल छुपा है। ‘बल आघूर्ण’ समझते समय यदि बच्चें का ध्यान उसकी दैनिक दिनचर्या में टोंटी खोलने, किवाड़ खोलने, कैंची से कपड़ा काटने, हाथ-पैर चलाने, रेस बढ़ाने के लिए एक्सीलेटर का हैण्डल घुमाने, पंखे की स्पीड कम-ज्यादा करने के लिए रेगुलेटर की नोब घुमाने आदि के साथ केन्द्रित किया जाए तो इस शब्द के सामने आते ही वहाँ के भाव का अन्दाजा तुरन्त होगा लेकिन यह शब्द केवल किताब में छपे शब्दों तक ही रह जाता है और बोझ बना रहता है। ऐसे अनेक शब्द बोझ बने रहते हैं और धीरे-धीरे बच्चे की डिक्शनरी में ऐसे शब्दों की संख्या बढ़ती जाती है। किसी पेड़ की हर टहनी की हर पत्ती एक-जैसी रंगीन क्यों होती है, हर घर की दीवारों में सीलन क्यों चढ़ती रहती है, बाथरूम में नाली पर लगी जाली में टूटे बाल एकत्रित होने पर वहाँ पानी लगातार रुक-रुककर क्यों बहता है जबकि बाल तो बहुत बारीक होते हैं, इन बातों पर उसका ध्यान दिलाया जाये या उसका चिन्तन कराया जाये तो पृष्ठतनाव जैसा टॉपिक समझने में देर न लगेगी और उसमें अपने आसपास ऐसे और उदाहरण ढूँढ़ने की जिज्ञासा भी बनेगी, लेकिन हम उसे केवल एक पुस्तक से ही बाँधे रखते हैं। आखिर ज्यादा अंक जो लाने हैं। बच्चों के बीच एक साइकिल को पहले खड़ी करके और फिर उसे चला करके उसके माध्यम से बल, उत्तोलक,लीवर घूर्णन गति, कोणीय वेग, कोणीय संवेग, घर्षण, ऊर्जा रूपान्तरण, स्प्रिंगों का संयोजन, संतुलन आदि जैसे कठिन लगने वाले शब्द सरल भी लगने लगेंगे और फिर बच्चा भी अपने आस-पास ऐसे दूसरे उदाहरण ढूँढ़ने का प्रयास करेगा। पैराशूट किस गति से नीचे आता है, इसके लिए उससे किसी बेकार छतरी के कपड़े का इस्तेमाल करके उसे पैराशूट बनवाकर और उड़वाकर उस ही सवाल का जवाब ढूँढ़वाया जाये तो परिणाम कुछ और ही मिलेगा। अप्रत्यक्षत: विषय से लगाव बढ़ने लगेगा और यही आवश्यक भी है।
किसी खगोलीय घटना के समय हम बच्चों के मन में पहले एक विशेष ड़र बैठाने में जुट जाते हैं क्योंकि हम स्वयं भयभीत रहते हैं। अगर बच्चों को चन्द्रग्रहण होता हुआ दिखाया जायेगा तो क्या नुकसान हो जायेगा? सूर्यग्रहण के समय सूर्य को देखना तो खतरे से खाली नहीं लेकिन उस समय अपने घर के बाहर अपने दैनिक काम करने में क्या नुकसान हो जायेगा? इन बातों के बार में बच्चे को समझाना तो छोड़िये, हम कक्षा में भौतिक विज्ञान की बारीकियाँ समझाते-समझाते समय आने पर खुद ही एक अंधविश्वास से ग्रसित हो जाते हैं और उस खगोलीय घटना से न तो स्वयं ही और न ही उस बच्चे को आनन्द उठाने के लिए प्रेरित करते हैं, साथ ही उस रहस्य को जानने से भी वंचित कर देते हैं। अगर वे इसके प्रत्यक्ष गवाह बनेंगे तो ब्रह्माण्ड की गुत्थी सुलझाने के लिए आगे बढ़ेंगे। हर बालक में रमन, रामानुजन, आइंस्टीन, न्यूटन व हॉकिंग छुपा बैठा है। जरूरत है उसे जगाने की, न कि उसे मारने की। भौतिक विज्ञान ऐसे अंधविश्वासों को ही तोड़ता है। लेकिन मैं फिर वही कहूँगा कि यह विषय किताब के सीमित अक्षरों में ही नहीं बल्कि एक बच्चे के आसपास बिखरा पड़ा है, उसके कदम-कदम पर हर क्रिया से जुड़ा है। विषय को समझने के लिए आवश्यक उपकरण एक प्राकृतिक लैब के रुप में उसके पास सदैव है, बस जरूरत है उनकी पहचान के लिए प्रेरित करने की। जैसे की प्रकृति के मध्य द्रोणाचार्य ने प्रक्षेप्य गति का ज्ञान देने के लिए प्रयोग के रूप में सभी कौरवों व पांडवों से चिड़िया की आँख भेदने का आदेश दिया केवल अर्जुन इस लिए सफल रहा क्योंकि वह तीर के परवलयाकार पथ के बारे में जानता था। क्रिया एक थी परन्तु उसका लाभ अनेक जगह हुआ। वहीं ‘बाहुबली’ फिल्म में एक सीन से चट्टान के किनारे से कूद चुके सुकेथुडु को दूर से रस्सी पकड़कर भागकर आते और कूदकर उसे पकडते हुए दिखाया गया है जो प्रक्षेप्य गति के नियमानुसार असम्भव है यदि फिल्मों में ऐसे अनेक काल्पनिक दृश्यों पर कक्षा में इस विषय को जोड़ते हुए बच्चों से चर्चा की जाये तो उन्हें कोई टॉपिक कठिन नहीं लगेगा और हर बार किसी-न-किसी टॉपिक को ढूँढ़ने की प्रवृत्ति जाग्रत होगी। विषय सरल व रोचक लगने लगेगा।
इसलिए इस मनोरंजक विषय को केवल किताब से न बाँधकर विभिन्न प्रायोगिक क्रियाओं के साथ बच्चे से जोड़ा जाये तो मेरा विश्वास है कि हर घर में अनुसंधान होता हुआ दिखाई देगा। लेकिन मैं ये भी मानता हूँ कि एक पाठक के रूप में आपको मेरी बातेें व्यावहारिक नहीं लग रही होंगी। फिर भी मैं स्वयं तो अपने अध्यापन काल में इसी तरह का यथासम्भव प्रयास करता हूँ और अपने से जुड़े बच्चों के बीच एक सहज भाव भी महसूस करता हूँ। बच्चों के भीतर एक संतोष भाव को देखकर मुझे निश्चित ही लगता है कि मैं अपने उद्देश्य में सफल भी हूँ। आइये, मिलकर अध्यापन पद्धति में सुधार करें और इस विषय के प्रति न्याय करें।