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कृषि व्यवस्था का वैज्ञानिकीकरण एवं आर्थिक विकेन्द्रीकरण

भारत एक कृषिप्रधान राष्ट्र है जिसकी जनसंख्या का ५० प्रतिशत से भी अधिक भाग कृषि पर आश्रित है। कृषि से सम्बन्धित उद्योग दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकते हैं: कृषि-सहायक एवं कृषि-उत्पाद पर आधारित। इस प्रकार कृषि व्यवस्था राष्ट्र की समृद्धि के लिए बहुत बड़ा आधार है। पुराने समय की एक कहावत थी जो जनता को जीवन उपार्जन की दिशा में उचित तथा सम्यक् निर्देशन प्रदान करती है—
”उत्तम खेती मध्यम बान, भीख चाकरी करे नादान”
उस वक्त भी कृषि को सबसे उत्तम व्यवसाय माना जाता था और नौकरी करने वाले लोगों को नादान समझा जाता था; परन्तु आज के इस परिवर्तित समय में अधिक केन्द्रीकरण की व्यवस्था के कारण कृषि-व्यवसाय को अपनाने वाले कृषकों का जीवन आर्थिक विपन्नता एवं दयनीय दशा में है। इतना ही नहीं अर्थाभाव के कारण सर्वाधिक आत्म-हत्यायें कृषि-व्यवसायी कृषक ही करते हैं। ऐसे अव्यवस्थित एवं असुरक्षित कृषि-व्यवसाय को आने वाली पीढ़ी शायद ही अपनाना चाहेगी। भले ही उसके पास पर्याप्त कृषि-भूमि क्यों न हो! परिणामस्वरुप धीरे-धीरे कृषि पूर्णरूपेण अवहेलित हो जायेगी जिसके भयंकर परिणाम सम्पूर्ण राष्ट्र को भोगने पड़ सकते हैं।

कृषि व्यवसाय की प्रगतिशील नीति :

इस विषय पर यदि गहन चिन्तन किया जाये तो कुछ ऐसे तथ्य सामने आते हैं जिन पर पुन: विचार एवं उपयुक्त प्रगतिशील नीति निर्धारण करने की परम आवश्यकता है जिससे बेरोजगार कृषक युवकों को इस विशाल कार्यक्षेत्र की ओर आकर्षित किया जा सके और राष्ट्र को प्रगति पथ पर आगे बढ़ाया जा सके। इस दिशा में अत्यावश्यक कदम हैं—
(क) मौजूदा कृषकों को खेती में प्रयोग होने वाले आवश्यक कृषि उपकरणों को आसानी से सुलभ करवाना, (ख) उन्हें आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति से कृषि करने के लिए प्रेरित करना (ग) उपलब्ध साधनों का अधिकतम उपयोग करना, (घ) कृषक युवकों की नई पीढ़ी में कृषि व्यवसाय को अपनाने की रुचि पैदा करना, तथा (ङ) उन्हें कृषि प्रशिक्षण संस्थानों एवं कृषि-विश्वविद्यालयों में शिक्षा पाने के लिए प्रेरित करना। निश्चय ही, यह तभी सम्भव हो पायेगा जब सरकार इस दिशा में कुछ ऐसे विशेष कदम उठाये।

  1. कृषक-युवकों को कृषि-विश्वविद्यालयों अथवा अन्य कृषि सम्बन्धित एवं कृषि आधारित उद्योगों के अन्तर्गत प्रशिक्षण पाने के लिए विशेष आकर्षण पैदा किया जाये, विशेष सुविधाएँ दी जायें, नि:शुल्क प्रशिक्षण हो, प्रशिक्षणोपरान्त व्यवसाय स्थापनार्थ आर्थिक सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जायें तथा उपज व उत्पाद को विक्रय हेतु उचित एवं सुलभ व्यवस्था प्रदान की जाये।
  2. कृषि-प्रशिक्षण संस्थानों में कृषक परिवार के बच्चों को सर्वाधिक आरक्षण देना होगा।

ये कुछ एक ऐसे कदम हैं जिन्हें यदि अविलम्ब उठाया जाये तो समाज के सबसे बड़े वर्ग को समृद्ध बनाया जा सकता है और देश की आर्थिक व्यवस्था में भी अतीव सुधार लाया जा सकता है।
प्रश्न उठता है कि इन सभी संसाधनों का प्रगतिशील एवं अधिकतम उपयोग कैसे किया जायेगा? इसके लिए नई पीढ़ी को कृषि-व्यवसाय अपनाने के लिए प्रेरणा व आकर्षण दोनों आवश्यक हैं। इसके साथ यह भी अति आवश्यक है कि यहाँ आर्थिक विकेन्द्रीकरण पर विशेष ध्यान देना होगा। यह तभी सम्भव हो सकेगा जब उत्पादन सहकारी सभाओं द्वारा हो और वितरण भी सीधा उपभोक्ता सहकारी सभाओं के माध्यम से हो। इन दोनों सहकारी सभाओं में सीधा तालमेल हो। इस प्रकार हर क्षेत्र स्वावलम्बी बनकर उत्पादक एवं उपभोक्ता दोनों को शोषण मुक्त करके समृद्धि की ओर अग्रसर कर देगा।

कृषि व्यवस्था का वैज्ञानिकीकरण एवं आर्थिक विकेन्द्रीकरण :

आधुनिककाल के अनेक कृषि वैज्ञानिकों, विचारकों तथा विशेषज्ञों ने भारत देश की समृद्धि के सन्दर्भ में कृषि व्यवस्था के वैज्ञानिकीकरण पर अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। 21वीं सदी के महान चिन्तक श्री प्रभात रंजन सरकार ने अपने सामाजिक-आर्थिक दर्शन प्रगतिशील उपयोग तत्व (प्र०उ०त०) में कृषि विप्लव का विचार प्रतिपादित किया है। उनकी विचारधारा के अनुसार किसी राष्ट्र की आर्थिक प्रगति के लिए 40 प्रतिशत जनता को कृषि पर, 40 प्रतिशत को उद्योगों पर, 10 प्रतिशत वाणिज्य तथा 10 प्रतिशत लोगों को सफेदपोश नौकरियों पर कार्यरत रहना श्रेयस्कर है। विश्वबन्धुत्व की धारणा से अनुप्राणित प्र०उ०त० दर्शन कृषि के वैज्ञानिकीकरण एवं आर्थिक विक्रेन्द्रीकरण पर बल देता है।

कृषि के क्षेत्र में स्वनिर्भरता अर्जित करने के लिए हमें इसी तरह के सामयिक दृष्टिकोण वाली नीति का पालन करना होगा।

वैज्ञानिकीकरण—श्री सरकार के अनुसार कृषि और उद्योग का सर्वाधिक आधुनिकीकरण आवश्यक है। सहकारिता के आधार पर निर्मित कृषि व्यवस्था के अन्तर्गत आधुनिक वैज्ञानिक यन्त्रों का व्यवहार करना होगा। इसी के आधार पर आधुनिकीकरण के फलस्वरूप उत्पादन में वृद्धि होगी। वर्तमान युग में कृषि कार्यों के लिए पुराने तौर तरीकों से काम नहीं लिया जा सकता। युग के साथ तालमेल रखते हुए कृषि में पशुओं के स्थान पर ट्रैक्टर का व्यवहार करना होगा। एक ट्रैक्टर का काम 8 जौड़े बैलों के बराबर है। कम जमीन पर बैल रखने या
पालने से अनावश्यक अर्थनैतिक क्षति होती है। वैज्ञानिकीकरण के तहत आधुनिक यन्त्रों का व्यवहार करने से भूमि पर अधिक लोगों का झूठा दबाव नहीं पड़ेगा। अतिरिक्त लोगों को दूसरे काम में लगाकर और विनियोग का क्षेत्र तैयार कर देश की उन्नति की जायेगी। यहीं नहीं यन्त्रीकरण के फलस्वरूप शहर व ग्रामों के बीच संपर्क स्थापित होने से ग्रामवासियों के जीवन की मर्यादा बढ़ेगी।
आर्थिक विकेन्द्रीकरण—प्र०उ०त० दर्शन की विचारधारा के अन्तर्गत सामाजिक-आर्थिक इकाई की कृषि, उद्योग व व्यापार की एक स्पष्ट नीति होनी चाहिए। स्थानीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग तथा उनका तर्कसंगत वितरण इसप्रकार से किया जाये ताकि एक समान आर्थिक विकास व सभी के लाभ की दृष्टि से हर व्यक्ति को रोजगार मिले। सहकारी समिति के सदस्यों को कृषि उत्पादन, फसल तथा उत्पादों का भाव तय करने और इन वस्तुओं को बेचने सम्बन्धी समस्त नीतियों को स्थानीय स्तर पर ही मिल बैठकर तय करना उचित है।
स्थानीय व्यक्ति को सहकारी संस्थाओं पर नियन्त्रण रखने के साथ ही क्षेत्र की प्रत्येक आर्थिक गतिविधि पर भी नजर रखनी होगी। स्थानीय प्रशासन इन सहकारी समितियों के विकास में भरपूर मदद देगा। कृषि की वस्तुओं का मूल्य निर्धारण, वस्तु के कच्चे माल की कीमत, मजदूरी, मालभाड़ा, स्टोर-नुकसानी, वस्तु का मूल्यह्रास, डूबते खाते आदि को ध्यान में रखकर तर्कसंगत रूप से निर्णय लेना होगा। ध्यान रहे कि वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत से 15 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। इस भाँति, विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था में कृषि एक सुव्यवस्थित उद्योग का दर्जा प्राप्त कर लेगी। मजबूत और स्वस्थ मानव समाज का निर्माण अर्थव्यवस्था के विकेन्द्रीकरण द्वारा ही सम्भव है।
कृषिक्षेत्र में आर्थिक स्वनिर्भरता के लिए एकीकृत खेती—कृषि विश्वविद्यालय के अन्तर्गत वैज्ञानिक की भूमिका में कृषि व्यवस्था के सन्दर्भ में शोध कार्यों को लेकर मुझ्रे विस्तृत और गहन अध्ययन का सुयोग प्राप्त हुआ है जिसके साथ उत्पादन तथा आपूर्ति विषयक अपार उद्योग धन्धे जुड़े हैं। वस्तुत: कृषि कार्य का मुख्य उद्देश्य आर्थिक स्वनिर्भरता है और इसके लिए कृषि का उत्पादक होना उचित एवं अपरिहार्य है। इस प्रकार की कृषि तभी सार्थक हो सकती है जब कि वह बाह्य वस्तुओं के लिए अपने आर्थिक अंचल के बाहर अन्य कारकों पर निर्भरशील न रहें। कृषि कार्य में यह आत्मनिर्भरता एकीकृत खेती (Integrated Farming) से आ सकती है।
एकीकृत खेती का अर्थ है विभिन्न कृषिजात वस्तुओं का उत्पादन, फलोधान संवद्र्धन या फलों की खेती, फूलों की खेती, लाह की खेती, रेशम उत्पादन, मछली उत्पादन, मधुमक्खी पालन, गोष्ठ पालन, पशुपालन, कृषि गवेषणागार, जल-सम्पदा का संरक्षण, शक्ति उत्पादन, उपयुक्त व अच्छी खाद का उपयोग तथा कुटीर उद्योग आदि। कृषि के क्षेत्र में स्वनिर्भरता अर्जित करने के लिए हमें इसी तरह के सामग्रिक दृष्टिकोण वाली नीति का पालन करना होगा। साथ ही, कृषि व्यवसाय में प्रयुक्त संसाधनों का प्रगतिशील तथा अधिकतम उपयोग करने की क्षमता भी बढ़ानी होगी।
एकीकृत खेती केन्द्रों पर कुछ विशेष व्यवस्थाओं जैसे-आटा तैयार करने के कल, पावरोटी बनाने की बेकरी, सुलभ बीज-वितरण केन्द्र, नि:शुल्क पेड़ों के बीजों के वितरण केन्द्र, डेयरी फार्मिंग, बायो-गैस प्लान्ट, सौर ऊर्जा केन्द्र, मधुमक्खी पालन, विद्यालय और अनाथालय। सुलभ-बीज वितरण केन्द्र उन्नत किस्म के बीजों का संग्रह कर सुलभ मूल्य पर विक्रय करेंगे। इसके अलावा स्थानीय किसानों से बीज खरीदकर या बाजार से सस्ती दर पर बीज खरीदकर अथवा कृषि केन्द्रों में स्वयं बीज तैयार करके स्थानीय लोगों को सुलभ मूल्य पर बेचेंगे। स्पष्टत: एकीकृत खेती केन्द्र युवा शक्ति को रोजगार उपलब्ध कराने में बहुत मदद देगी। श्री सरकार ने प्र०उ०त० दर्शन के अन्तर्गत कृषि उद्योग से जुड़े कुछ अन्य व्यवसाय सुझाये हैं जो युवा शक्ति की आर्थिक स्वनिर्भरता के स्रोत बन सकते हैं। इनका उल्लेख निम्नवत् है—

    1. खेती कार्य—कृषि से अभिप्राय है वैज्ञानिक पद्धति से जमीन की जुताई व पशुपालन इत्यादि। इसके अन्तर्गत मुख्य फसलों का उत्पादन यथा- विभिन्न प्रकार के दलहन, खाद्यान्न, मोटे दाने के अनाज, तेलहन, ईख और साग-सब्जियों की पैदावर शामिल है। खेती की चीनी फसलों में ईख, सुगरबीट, खजूर, ताड़ आदि। मसाला फसलों में लौंग, दालचीनी, धनिया, जीरा, हल्दी आदि हैं। इसके अलावा औषधीय उद्भिदों की खेती की जा सकती है। अन्यान्य फसलों में चाय, कॉफी, कोको, रबर के बागान अर्थकारी फसल हैं। खेतीबारी के कुछ खास क्षेत्र आमजन के जीवननिर्वाह में सहायक हाते हैं। ये हैं-साग सब्जियाँ, दाल, आलू, पशु आहार के खेत जो दुग्ध उत्पादन के लिए अतीव आवश्यक हैं।
    2. फलों की खेती—कृषि परयिोजना के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के फलों की खेती मूलत: की जाती है। फलों के उत्पादन से जैम, जेली, मेवा फल इत्यादि लघु उद्योगों की स्थापना करके अर्थोपार्जन किया जा सकता है।
    3. फूलों की खेती—फलों की खेती कृषि व्यवसाय का अच्छा विकल्प है। जूही, चम्पा और गुलाब आदि विभिन्न फूलों से एसेन्स तैयार हो सकते हैं जिनसे अन्यान्य सुगंधित द्रव्य बनते हैं। गुलाब की तरह रजनीगंधा का व्यापक उत्पादन करके विश्वभर में विक्रय किया जा सकता है। कमल में कमलमधु का संग्रह हो सकता है जो चक्षुरोगों की महाऔषधि है। पद्म, लिली, चिलम, कॉटनफूल (कपास का फूल) से उत्तम मधु पाया जाता है। गाछों से प्राप्त मधु फूलों से सीधे संगृहीत होते हैं। फूलों की खेती की अवहेलना हानिकारक है, इसका सही तरीके विकास अनिवार्य है।
    4. कीट पालन-उत्पादन—इस उद्योग की तीन शाखाएँ हैं— (क) रेशम की खेती (ख) लाह की खेती तथा (ग) मधुमक्खी पालन। चार तरह के रेशम कीटों में से तूँत रेशम के खेत में लार्वा या इल्लियाँ तूँत के पत्ते खाकर बड़ी होती हैं। मूँगा रेशम, सजहन के पत्ते तथा असमीया सोंवालु इत्यादि के पत्ते खाकर पलते हैं। तसर कीटों का खाद्य अर्जुन, बेर, आसन, साल, श्वेत साल आदि के पत्ते और एरण्ड रेशम के कीट रेंडी के पत्ते खाते हैं।

 

    1. लाह उत्पादन के अन्तर्गत पलास, बेर, कुसुम गाछों पर लाह के कीट पलते हैं। विभिन्न साजो-सामान को कीटों के संक्रमण से बचाने के लिए लाह को वार्णश के रूप में व्यवहार किया जा सकता है।

 

    मधुमक्खी पालन में मधुमक्खियाँ विभिन्न फलोें से संग्रह करके परिशुद्ध मधु व मोम तैयार करती हैं। मधुमक्खी की तीन प्रजाति हैं- जंगली मधुमक्खी अर्थात् रक-बी जो पोस नहीं मानती (जंगल में छत्ते बनाती हैं), बुश-बी जो पोस मानती है और एपिस इण्डिका। मधुमक्खी पालन से संग्रहित मधु (शहद) विक्रय आजीविका निर्वाह का साधन बन सकता है।

  1. गो-पालन- गायों व भैंसों से दुग्ध का उत्पादन, दूध तथा ऊन के लिए भेड़ पालन, बकरी पालन आदि। दूध से चूर्ण दूध (पाउडर मिल्क) तैयार करना और दही का निर्जलीकरण करके संरक्षित करना उचित है और इसे बाजार में विक्रय कर लाभ अर्जित किया जा सकता है।
  2. मछली पालन—बड़े जलाशय, पोखर, जलाधार ऐसी जगहों पर मछली की खेती की जा सकती है। कारण यह है कि इससे जल संरक्षण व जल परिशोधन की सुविधा होती है। बरसात में धान के खेतों में भी मछलियों की खेती सम्भव है। मछलियाँ पक्षियों का स्वाभाविक खाद्य हैं। मछली पालन पर्यावरण सन्तुलन के लिए अपरिहार्य है।
  3. कृषिमूलक और कृषि-आधारित उद्योग-धन्धे—हर एक कृषि तथा बहुमुखी विकास केन्द्र में आवश्यक कच्चा माल सहज ही उपलब्ध होने की दशा में अनेक प्रकार के कुटीर उद्योग आरम्भ किये जा सकते हैं। (क) कीट जात कृषि उत्पादों पर आधारित कुटीर उद्योग उदाहरणार्थ—दूध, ऊन, रेशमसूम, लाह, मधु, मोम इत्यादि। (ख) ऐसी कृषि सामग्रियों का उत्पादन जो सीधे वृक्षजात हैं (झतोलू धीगुगल); यथा—दाल से पापड़, चावल से चूड़ा, विविध अनाजों से कार्नफ्लेक्स, फलों से जैम जैली आदि (ग) भेषज उद्योग जो पादप से उत्पन्न हैं; जैसे—नाना प्रकार के अर्क या सुगंधी, आयुर्वेदिक व प्राकृतिक औषधियाँ (घ) औषध व तन्तुओं का उत्पादन—साबुन, शैम्पू, तरल साबुन, डिटरजेण्ट आदि।

निष्कर्ष यह है कि उपरोक्त विवरण के आधार पर 10+2 सफलता पाने वाले शिक्षार्थीगण कृषि मूलक और कृषि आधारित उद्योगों को प्रारम्भ करके स्वरोजगार परियोजना के तहत आर्थिक दृष्टि से क्षमतावान हो सकते हैं। भारत कृषि प्रधान देश है और वैज्ञानिक रीति से कृषि उद्योग चलाकर बेरोजगार युवावर्ग अपने व्यवसाय संचालित कर सकते हैं। आर्थिक विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त का पालन कर उन्नीत कृषि व्यवस्था के सहारे देशवासी समृद्धि का मूलमंत्र पा सकते हैं।

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