भारत देश के हर गाँव के गली-मौहल्ले के नर्सरी स्कूलों, स्थानीय स्कूल-कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और निजी इंस्टीट्यूट्स में शिक्षार्थियों की भरमार है। माध्यमिक से लेकर उच्च शिक्षा एवं विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता की गारण्टी देने वाले विषय-विशेषज्ञों की कदम-कदम पर दुकानें सजी हैं। अध्ययन-अध्यापन को प्रभावशाली बनाने की नयी तकनीकों को खोजते न जाने कितने प्रखर मानव मस्तिष्क हर घड़ी कार्यरत हैं। विज्ञान, कला और मानविकी के क्षेत्र में शोध-कार्यों की बाढ़ है। अपने पालितों को अच्छी-से-अच्छी शिक्षा तथा व्यवसाय सुलभ कराने की चाह में सामथ्र्यवान अभिभावक पोटलियाँ खोले खड़े हैं। शैक्षिक परिदृश्य पर हम देखते हैं कि शिक्षा की हाट में बेतहाशा भीड़ खरीद-फरोख्त में जुटी है। यदि कुछ नहीं है तो वे नये इंसान जिनके निर्माण हेतु समूची शिक्षा व्यवस्था दिन-रात प्राणपण से जुटी है। नि:सन्देह शिक्षा जगत् के अन्तर्गत ‘मानव निर्माण’ की प्रक्रिया अधिकांशत: ‘धन निर्माण’ की प्रक्रिया में बदल चुकी है।
शिक्षा, देश के बच्चों को अधिकाधिक ज्ञान से युक्त करने के अलावा प्रदत्त ज्ञान का संरक्षण, संवद्र्धन तथा अग्रसारण करने का उद्देश्य रखती है। यह भी कि बच्चे न सिर्पâ खूब सीखें बल्कि अर्जित ज्ञान का अपने जीवन में भरपूर व्यावहारिक उपयोग भी करें। शिक्षा उज्ज्वल भविष्य की दिशा में, हर पीढ़ी का मार्ग प्रशस्त करती है और उसकी योग्यताओं के अनुरूप आजीविका पाने के लिए उसे तैयार करती है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा की निर्माणशाला से निकले बच्चों से यह आशा की जाती है कि वे नैतिक मूल्यों से सज्जित होकर एक सभ्य-सुसंस्कृत समाज का गठन करेंगे।
किन्तु वस्तुस्थिति कुछ और ही है। राष्ट्र में योग्यताओं की कमी नहीं है फिर भी संवेदनशील प्रबुद्ध विचारक और चिन्तक शिक्षा के स्तर में क्रमागत ह्रास के प्रति गहन चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं। दरअसल, शिक्षित युवक-युवतियों की भीड़ को न तो रोजगार के उपयुक्त अवसर मिल रहे हैं और न ही उनके जीवन में नैतिक मूल्यों से विभूषित सदाचार ही दीख पड़ता है। नीतिविहीन जीवन की राह ऐसे अन्धे व्यक्ति की राह है जो कभी लक्ष्य तक नहीं पहुँचता। यह भटकाव से भरी राह है। निराश व हताश भटके युवाओं से हम क्या आशा कर सकते हैं, अलावा इसके कि वे विचलित होकर गलत राह अपना लेंगे, और यही हो रहा है।
शिक्षा प्रणाली का मूल केन्द्र शिक्षार्थी है जिसके जीवन में शिक्षा को वांछित बदलाव लाना है। बदलाव लाने के लिए माता-पिता और शिक्षक उत्तरदायी हैं। बच्चों की आवश्यकतायें पूरी करने के बाद माता-पिता के पास समय की नितान्त कमी रहती है। शिक्षक जैसे-तैसे अपना कोर्स पूरा करना इतिश्री समझते हैं। शिक्षार्थियों को वॅâरियर के विकल्प सुझाने वाले मार्गदर्शक उपलब्ध नहीं हो पाते। सम्यक् मार्गदर्शन नहीं मिलने पर हर किसी पीढ़ी का पथ विमुख होकर अनैतिक व अनुचित कार्यों में संलग्न होना स्वाभाविक है। जब गोमुख से निकली भागीरथी ही मैली हो तो मैदानी इलाकों में गंगा नदी का जल पवित्र वैâसे हो सकता है। सद्विचारों के उद्गम से ही हमें सत्कार्यों की प्रेरणा मिलती है। नि:सन्देह घर-परिवार और शिक्षा संस्थायें सद्विचारों के उत्पादन का सर्वश्रेष्ठ अभिकरण हैं। इसी वजह से, प्रचलित शिक्षा को पुनर्जीवन चाहिए और शिक्षा की नयी नीतियों के अभीष्ट क्रियान्वन से ही शिक्षा पुनर्जीवित होती है।
नयी शिक्षा नीति-2019 का दस्तावेज अब सार्वजनिक हो गया है। शिक्षा की नयी नीति पर अमल करने से पूर्व हमें भारत की संस्कृति में निहित आध्यात्मिक सूत्र ‘सा विद्या या विमुक्तये’ पर विचार करना होगा जिसका अर्थ है कि शिक्षा हमें भौतिक, मानसिक तथा आत्मिक बन्धनों से मुक्त करती है। इस महाभाव पर आधारित शिक्षा के उद्देश्य नैतिक मूल्यों की स्थापना के बिना पूरे नहीं हो सकते। इसलिए स्वस्थ समाज के निर्माण की दृष्टि से शिक्षार्थियों के जीवन में नैतिक व्यवहार एवं आचरण का समावेश हमारा प्रधान दायित्व है। इस दायित्व की पूर्ति में बच्चों के अभिभावकों और शिक्षकों की अहम् भूमिका है। नयी शिक्षा नीति का क्रियावयन इसी संकल्प तथा दायित्व बोध के साथ होना चाहिए। यह समय की जबरदस्त माँग है।
नई शिक्षा नीति-2019 से राष्ट्र की अपेक्षा
16
Nov