मनुष्य को अपनी वास्तविक सुख-शान्ति के साथ-साथ पूरे समाज की सुख-शान्ति के लिए भी अनवरत प्रयास करना होगा। तभी उसका वह सुख सार्थक एवं अभीष्ट कहा जायेगा।
भारतीय संस्कृति आदिकाल से ही अध्यात्म-केन्द्रित रही है। अध्यात्म पुरुष, हमारे ऋषि-मुनिगण जीवनपर्यन्त आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी विषयों के चिन्तन-मनन, आराधन और ध्यान-साधना में रत रहते थे। हमारे देश का सांस्कृतिक दर्शन ‘व्यष्टि में समष्टि और समष्टि में व्यष्टि’ की भावना से ओतप्रोत है। इसका अभिप्राय है कि व्यक्ति और समाज अन्योन्याश्रित हैं क्योंकि व्यक्तियों से समाज बनता है और समाज के अन्तर्गत व्यक्तियों का अस्तित्व है। दोनों की अपनी विशिष्टता है और उपादेयता भी। यदि व्यक्ति और समाज एकरूप हैं तो एक व्यक्ति की आत्मोन्नति तथा पूरे समाज की सामूहिक उन्नति एक-दूसरी से अभिन्न रूप में जुड़े हैं।
इसी कारण हमारे देश के आध्यात्मिक दर्शन में मनुष्य के जीवन-लक्ष्य को सूत्रबद्ध करते हुए कहा गया है ‘आत्म मोक्षार्थं जगत् हिताय च’ अर्थात् आत्मा की मुक्ति मनुष्य के जीवन का लक्ष्य है किन्तु उसका यह लक्ष्य समूचे जगत् के कल्याण से जुड़ा है। मनुष्य को अपनी वास्तविक सुख-शान्ति के साथ-साथ पूरे समाज की सुख-शान्ति के लिए भी अनवरत प्रयास करना होगा। तभी उसका वह सुख सार्थक एवं अभीष्ट कहा जायेगा। व्यक्ति की एकाकी सुख-शान्ति समाज की सुख-शान्ति के बिना अर्थहीन है, व्यर्थ और अनुपयोगी है। व्यक्ति और समाज के लिए क्या अर्थपूर्ण और उपयोगी है, इसका निर्धारण आचरण-संहिता के अन्तर्गत किया जाता है और आचरण-संहिता समाज के नीतिशास्त्र का महत्त्वपूर्ण विषय है।
नीतिशास्त्र : जीवन जीने की कला
मनुष्य अपना व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन जीने के लिए कुछ लक्ष्य, आदर्श एवं व्यवहार प्रतिमान सुनिश्चित करता है और उन्हीं के अनुसार अपना जीवन जीता है। नीतिशास्त्रीय दृष्टि से आचरण संहिता के द्वारा मनुष्य के लिए उपयुक्त आचरण का मानदण्ड तय होता है। किसी मनुष्य के लिए क्या करणीय है या अकरणीय, क्या उचित है या अनुचित और क्या अच्छा है या बुरा? आचरण के समुचित पथ का चयन करना नीतिशास्त्र के अन्तर्गत आता है। व्यक्ति एवं समाज के लिए करणीय आचार एवं व्यवहार निर्धारित करने वाले नियम तथा संहिताएँ नीति कहलाती हैं। शास्त्रों में उद्धृत है, ‘नैनं क्षेमार्थे इत्यर्थे नीति’ अर्थात् नीति वह है जो मनुष्यों को कल्याण के पथ पर ले जाती है।
यहाँ यह बात समझने योग्य है कि नीतियाँ सदैव स्थिर, गतिहीन या अपरिवर्तनशील नहीं होतीं। इनमें समय के साथ-साथ परिवर्तन आते हैं। मनुष्य स्वयं में विवेकी तथा विचारशील प्राणी है जिसकी भावधारा में बदलाव आना स्वाभाविक है। उसी के साथ समाज में भी देश, काल एवं पात्रानुसार परिवर्तन होते हैं। नीति-विषयक परम्पराओं में नये समायोजन के तहत मानदण्डों में भी बदलाव आते हैं जो नये आचरण को सुनिश्चित करते हैं। इस भाँति, व्यक्ति और समाज के लिए आचार एवं व्यवहार निर्देशक नये नियमों व संहिताओं के अनुरूप नया नीतिशास्त्र निर्धारित होता है और यह नीतिशास्त्र ही जीवन जीने की कला सिखाता है।
जीवन-मूल्य और नैतिकता
जीवन-मूल्य और नैतिकता नीतिशास्त्र के अन्तर्गत दो विशेष शब्द हैं। जीवन-मूल्यों से अभिप्राय उन समस्त विचारों, सिद्धान्तों तथा वस्तुओं से है जिन्हें कोई समाज अपने अस्तित्व के लिए वांछनीय और अपरिहार्य समझता है। समाज के सदस्य, भावनात्मक रूप से, इन जीवन-मूल्यों को सर्वाधिक महत्ता प्रदान करते हैं। यहाँ तक कि जीवन-मूल्य बचाने के लिए अपने प्राण भी त्याग सकते हैं। भारतीय समाज के सन्दर्भ में राष्ट्रध्वज, देशभक्ति, गुरुभक्ति, मातृ-पितृभक्ति, कौमार्य, सतीत्व और नारी की शारीरिक शुचिता ऐसे ही जीवन-मूल्यों के उदाहरण हैं। सत्य, सम्यक् आचरण, प्रेम, शान्ति और अहिंसा इन पाँच मूल्यों को शाश्वत एवं सार्वभौमिक जीवन-मूल्य कहा गया है। हिन्दू दर्शन के अन्तर्गत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को पुरुषार्थ की संज्ञा दी गयी है। इनके आधार पर ही जीवन-यापन के नियम निर्धारित होते हैं।
नैतिकता जीवन-मूल्यों की प्राप्ति का मार्ग है जिसका सम्बन्ध आचरण की संहिताओं से है। आचरण-संहिता में आचरण का मूल्यांकन करने की दृष्टि से कुछ मार्गदर्शक नियमों को बनाया गया है। इन्हीं मार्गदर्शक नियमों पर चलकर कोई मनुष्य ‘एक श्रेष्ठ मानव’ कहलाने का अधिकारी है। जीवन-मूल्य और नैतिकता मनुष्य के चरित्र की आधारशिला है। आदर्श चरित्र का निर्माण इन्हीं मूल्यों तथा नैतिकता के माध्यम से होता है। उल्लेखनीय रूप से; नैतिकता के बल पर ही आध्यात्मिकता की स्थापना होती है और नैतिकताविहीन अध्यात्म निरा पाखण्ड है।
विश्व का हरएक समाज अपनी नयी पीढ़ी को समाज द्वारा निर्धारित जीवन-मूल्य और नैतिक आदर्श सिखाना चाहता है। मानव समाज की प्रत्येक गोष्ठी, समुदाय, परिवार तथा आस-पड़ोस की यही कामना होती है कि उस समाज के निर्धारित जीवन-मूल्यों, सम्यक् आचरण और आदर्शों की सांस्कृतिक विरासत आने वाली हर पीढ़ी को हस्तान्तरित होती चले। इनके हस्तान्तरण में ही समाज का अस्तित्व और संगठन बना रह सकता है। इसी हस्तान्तरण से समाज में गत्यात्मकता, निरन्तरता एवं प्रगति जन्म लेती है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जीवन-मूल्य हस्तान्तरित किये जाने के अनेक माध्यम हैं। ये माध्यम उस समाज के स्वरूप तथा प्रकृति पर निर्भर करते हैं। उदाहरण के लिए; प्राय: लोकोक्तियाँ इस वजह से माध्यम बन जाती हैं क्योंकि इनसे समाज का लोकजीवन, बौद्धिक क्षमता तथा गहरी अनुभूतियाँ झलकती हैं। विकसित समाजों की विशिष्ट शैक्षिक संस्थाएँ जैसे स्कूल, कॉलेज तथा विश्वविद्यालयों के अन्तर्गत नयी पीढ़ी को सिर्फ साहित्य, मानविकी और लौकिक ज्ञान-विज्ञान की ही शिक्षा नहीं दी जाती, बल्कि उन्हें जीवन-मूल्यों व नैतिकता में भी दीक्षित किया जाता है। आदिम स्तर के समाजों में कहानियों, गीतों, कलाओं, लोककथाओं तथा लोकनृत्यों के माध्यम से मूल्यों का हस्तान्तरण होता है। ये मनुष्य के वे अर्जित गुण हैं जिन्हें हर एक पीढ़ी को सीखना ही पड़ता है।
भटकती हुई युवा पीढ़ी को महान शिक्षक के रूप में आचार्य चाणक्य जैसे किसी युग-प्रवर्तक की तलाश है।
मूल्य-आधारित शिक्षा
शिक्षा, बच्चों के अन्तर्निहित एवं सुप्त-गुणों के विकास के साथ उन्हें व्यवहार के तरीके सिखाती है और उन्हें जीवन- यापन के लिए आवश्यक कौशलों में पारंगत करती है। बच्चों के चरित्र एवं सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण शिक्षा द्वारा होता है। शिक्षा का स्वरूप चाहे जैसा हो औपचारिक या अनौपचारिक, वह मूल्यपरक होती है। मूल्यविहीन शिक्षा धनोपार्जन का साधन तो बन सकती है किन्तु यह शिक्षा नितान्त अधूरी शिक्षा ही कही जायेगी। मानवता मनुष्य का सहज स्वभाव और सहज गुणधर्म है। इसलिए मूल्यपरक शिक्षा मनुष्य में मानवता लाती है और उसे सच्चे अर्थों में मानव बनाती है।
प्रश्न उठता है कि क्या विद्यमान शिक्षा प्रणाली को मूल्य-आधारित कह सकते हैं? क्या यह शिक्षा वास्तव में विद्यार्थियों में मानवीय गुणों का रोपण कर पा रही है? क्या आज के अधिकारी हैं? क्या शिक्षा अपने लक्ष्यों तथा उद्देश्यों की पूर्ति कर पा रही है? यदि इसका उत्तर हाँ ‘है’ तो फिर पतन की ओर उन्मुख आज का समाज क्यों अपनी मर्यादाएँ खो रहा है? विश्वगुरु कहलाने वाला अध्यात्मवादी भारत राष्ट्र पश्चिम का अनुकरण करके तेजी से भौतिकवादी क्यों होता जा रहा है? यह सर्वविदित सच है कि पश्चिमी समाज में अधिक-से-अधिक धन कमाकर बड़ा पूँजीपति बनने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ रही है। पश्चिम के देशों में मानसिक अशान्ति, क्रोध, हिंसा, असन्तोष, तनाव और मूल्यों में गिरावट लगातार बढ़ती जा रही है। भौतिकवादी दृष्टिकोण के विस्तार तथा आध्यात्मिक जीवन पद्धति के अभाव ने विनाश की प्रक्रिया को जन्म दे दिया है। इसी कारण पृथ्वी के पर्यावरण के भीतर प्रदूषण के बादल विकराल संकट बनकर छा गये हैं। अधिकांश देशों का मि़जाज तीसरे विश्वयुद्ध की ओर बढ़ रहा है। दुनिया के सभी देशों के सामने यह बहुत बड़ी चुनौती है कि इस विश्वव्यापी विषम समस्या से कैसे छुटकारा पाया जाये! शिक्षाविद् और विचारवान लोग सभी जगहों पर गहन चिन्तन-मनन और विचार-विमर्श कर रहे हैं। उन सभी का एक यही निष्कर्ष है कि समाज में नैतिकता के ह्रास का वर्तमान महान संकट मूल्यविहीन शिक्षा प्रणाली के चलते उत्पन्न हुआ है। यदि उदीयमान पीढ़ियों को संस्कारित शिक्षा दी गयी होती तो निश्चय ही, वैश्विक समाज का परिदृश्य कुछ और होता।
संस्कारित शिक्षा देने में परिवार का दायित्व
परिवार हर बालक की पहली पाठशाला है। नैतिक शिक्षा की शुरुआत बालक के जन्म से ही प्रारम्भ हो जाती है। परिवार में माता-पिता, दादा-दादी और वरिष्ठजन बच्चों को कहानियों, गीतों तथा लोककथाओं के माध्यम से अच्छी सीख देते हैं। परिवार के सदस्यों, पास-पड़ोस तथा सगे-सम्बन्धियों के माध्यम से बच्चों को अच्छी सीख देना समाजीकरण की प्रक्रिया का अंग है। इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रत्येक बच्चा अनुकरण करके सीखता है कि वह अपने से बड़ों, अपने से छोटों और स्वयं अपने साथ क्या व कैसा व्यवहार करे? आपसी संवाद, जिज्ञासाएँ के, खानपान, चालचलन, वेशभूषा तथा व्यवहार के अन्य प्रतिमान बच्चा अपने पारिवारिक व इर्द-गिर्द के वातावरण से सीखता है। अच्छी आदतें और गुणधर्म विकसित करने में परिवार का स्थान एवं उत्तरदायित्व गुरुतर है।
भारतीय समाज के प्राय: हर परिवार की वर्तमान परिस्थितियाँ उसके द्वारा पूरी किये जाने वाले दायित्वों से कुछ भिन्न हैं जिनकी वजह से बालक का परिवार उसे संस्कारित शिक्षा देने से वंचित रह जाता है। समाज के प्रचलित परिवारों का आकार इन दिनों छोटा हो चला है। उन बड़े-बूढ़े लोगों की प्राय: कमी रहती है जो बच्चों को सद्गुण व अच्छी आदतें सिखाने में और उनमें श्रेष्ठ आदर्शों का समावेश करने में मुख्य भूमिका निभाया करते थे। आधुनिक परिवार अपने बच्चों को उनकी कच्ची उम्र में नैतिकता के संप्रत्यय व अवधारणाओं का पाठ पढ़ाने में असक्षम पाता है। माता-पिता अपने बच्चों के नैतिक विकास के लिए आवश्यक समय नहीं जुटा पाते। जीवनोपयोगी सीख एवं नित्यप्रति की जिज्ञासाओं को शान्त करने के अलावा बच्चे का भावात्मक विकास एक अनिवार्यता है। नि:सन्देह बच्चे को श्रेष्ठ चरित्र प्रदान करने तथा उसमें उत्पादक दिग्विन्यास उत्पन्न करने में परिवार की अतीव महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस बात को बच्चे के अभिभावकों को गम्भीरता के साथ स्वीकार करना चाहिए और समझकर बहुत ईमानदारी के साथ अपने कत्र्तव्यों का परिपालन भी करना चाहिए।
शिक्षक और स्कूल की केन्द्रीय भूमिका
नैतिक मूल्यों की शिक्षा में शिक्षक और स्कूल की केन्द्रीय भूमिका है। शिक्षक श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों का जीता-जागता एवं गतिशील उदाहरण है। हर शिक्षक की सोच-विचार, भावनाओं तथा कार्यपद्धति में आदर्श जीवन-मूल्यों की झलक दिखाई देनी चाहिए। हम लोग भली प्रकार जानते हैं कि बच्चे अनुकरण से बेहतर तथा स्थायी शिक्षा प्राप्त करते हैं। शिक्षक के चरित्र, आचरण एवं व्यवहार प्रतिमानों को उसके विद्यार्थियों के जीवनपथ का प्रकाश स्तम्भ कहा जा सकता है। वह अपने शिष्यों की अन्तर्निहित क्षमता को विकास के सभी अवसर प्रदान करता है और शिष्यों के व्यवहारों व शिष्टाचारों को आदर्श स्वरूप देने की कला जानता है। इस दृष्टि से प्रत्येक शिक्षक में विशेष गुणों की आवश्यकता अनुभव की जाती है। निश्चय ही, शिक्षण स्वयं में व्यवसाय कम है और मिशन अधिक है।
नैतिक मूल्यों में अटूट निष्ठा रखने वाला शिक्षक ही अपनी बहुआयामी भूमिका को बखूबी निभा सकता है। शिक्षक का दायित्व अपने शिष्यों के प्रति तो होता ही है लेकिन इसके अतिरिक्त अभिभावकगण, स्कूल प्रबन्धन, सहयोगियों, समूचे समाज, राष्ट्र और मानवता के प्रति भी उतना ही है। वह अपने नैतिक बल, आत्मशक्ति, साहस एवं निष्ठा-भावना से अपने दायित्वों को परिपूर्ण करता है। शिक्षक अपने शिक्षार्थियों को अभिप्रेरित करता है कि वे प्रतिकूल परिस्थिति में भी सच्चाई, ईमानदारी, न्याय, समता और मानवता का पूरा पक्ष लें। अधर्म से कभी समझौता न करें और सदैव धर्म का साथ दें। अन्तत: स्पष्ट है कि शिक्षार्थियों के अन्तरमन में सच्चे ज्ञान की ज्योति प्रज्ज्वलित करने वाला अन्य कोई नहीं, एक प्रबुद्ध शिक्षक ही हो सकता है। नि:सन्देह प्रत्येक सच्चा शिक्षक प्रेम और करुणा से अभिसिक्त एक अपरिहार्य केन्द्रीभूत सत्ता है।
वैज्ञानिक शोधों का निष्कर्ष है कि मूल्यों के सन्दर्भ में अपनी केन्द्रीय भूमिका के अन्तर्गत स्कूलों की विशेष तथा अनुपम महत्ता है। स्कूलों को चाहिए कि वे इसके निमित्त प्रत्येक स्तर के शिक्षार्थियों के लिए आदर्श पाठ्यक्रम का निमार्ण करें। नैतिक शिक्षा के एकीकृत पाठ्यक्रम को तीन वर्गों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा सकता है—
- नैतिकता के मूल केन्द्रीय पाठ्यक्रम में नैतिकता की अवधारणा, उसके संघटक तत्त्वों तथा उपादेयता को शामिल किया जायेगा। यह पाठ्यक्रम शिक्षार्थियों में जीवन के लिए अपरिहार्य सार्वभौम गुणों के विकास की क्षमता पैदा करेगा। इसके फलस्वरूप शिक्षार्थीगण अपने कार्यों के उचित-अनुचित, अच्छा-बुरा तथा हितकारी-अहितकारी होने का उचित निर्णय ले सकेंगे। इस भाँति उनमें सच्चे इंसान को परखने की क्षमता उत्पन्न हो सकेगी।
- सामाजिक विज्ञानों का अध्ययन-अध्यापन सम्बन्धित मूल्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए। प्रत्येक शास्त्र तत्सम्बन्धी मूल्यों को अपने पाठ्यक्रम में शामिल करे; जैसे—समाजशास्त्र में सामाजिक मूल्यों, विधिशास्त्र में वैधानिक मूल्यों, राजनीतिशास्त्र में राजनीतिक मूल्यों और शिक्षाशास्त्र में शैक्षिक मूल्यों को समाविष्ट किया जाना चाहिए। इतिहास का पाठ्यक्रम पुनर्रचित करते समय ध्यान रखा जाना चाहिए कि इसमें भारतीय संस्कृति के मूल्यों को भी निहित किया गया है अथवा नहीं; यह किया जाना अपरिहार्य है।
- नैतिक शिक्षा की दृष्टि से प्रच्छन्न पाठ्यक्रम अत्यन्त आवश्यक है। बहुमूल्य भूमिका वाले इस पाठ्यक्रम के अन्तर्गत वाद-विवाद, नुक्कड़ नाटक, पर्यटन, प्रहसन, एकांकी, प्रवचन एवं अनेकानेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी जा सकती है। खेलकूद व योगाभ्यास को नैतिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में ढाला जा सकता है। प्रोजेक्ट कार्य, खेल, मनोरंजन, सेवाकार्य और उपयोगी कार्य इसमें एकसाथ सम्मिलित हैं। निश्चयपूर्वक इनसे बच्चों में सद्गुणों तथा मानवीय गुणों का सहज प्रस्फुटन होता है।
नैतिक शिक्षा के सैद्धान्तिक शिक्षण-अधिगम कार्यक्रम से ही समस्या का सर्वांग समाधान नहीं हो सकेगा। नैतिक गुणों को बच्चों की आदतों में ढालना होगा। इन्हें बच्चों के व्यवहार प्रतिमानों तथा उनकी जीवनचर्या का एक अभिन्न अंग बनाना होगा। नैतिक शिक्षा को प्रायोगिक तथा व्यावहारिक जामा पहनाने की दृष्टि से परिवारजन, माता-पिता, पास-पड़ोस, मित्रमण्डली, समुदाय, पाठशाला, स्कूल और शिक्षकवृन्द को एकजुट होकर कार्यक्रम आहूत करने होंगे। बच्चों में अच्छे संस्कार निर्मित करने की प्रक्रिया कक्षा-शिक्षण से सर्वथा भिन्न है। मूल्यपरक शिक्षा प्रदान करने की प्रक्रिया के अन्तर्गत विषयवस्तु के सैद्धान्तिक तथा भावपक्ष के साथ कलापक्ष को भी उजागर करना होगा।
नैतिक शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को एकीकृत व्यक्तित्व प्रदान करती है। यह उसे सुन्दर-सफल जीवन जीने की कला सिखाने वाली प्रभावशाली विद्या है। दुर्भाग्य से आज का यह समाज जीवन-मूल्य खो रहा है और राष्ट्र के बालक-बालिकाओं की नयी पीढ़ी राह भटक रही है। इस भटकती हुई युवा पीढ़ी को महान शिक्षक के रूप में आचार्य चाणक्य जैसे किसी युग-प्रवर्तक की तलाश है।