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याद करें हम गांधी जी को

वैश्वीकरण की चकाचौंध से प्रभावित धनाढ्य वर्ग और सत्ता सुख भोग चुका सम्पन्न वर्ग सभी लोग गांधी को भुलाना चाहेंगे। वे जानते हैं कि उनके मार्ग से गांधी का रास्ता ही सही है।

१५० वर्ष पहले मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म हुआ था। इस वर्ष देश उन्हें विशेष रूप से याद कर रहा है। देश उन्हें याद कर रहा था। स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने वाले और शिक्षा देने वाले सभी उनके जीवन-दर्शन और उपलब्धियों के सम्बन्ध में अपनी जानकारी बढ़ाने का प्रयत्न कर रहे हैं। सत्य, अहिंसा, सिद्धान्त, पंथिक समरसता, सामाजिक सहिष्णुता जैसे जीवन के महत्त्वपूर्ण पक्षों पर सार्थक चर्चाएँ आयोजित हो रही हैं। इस जिज्ञासा का समाधान ढूँढ़ा जा रहा है कि गांधी जी के जीवन-आदर्श आज के सन्दर्भ में कितना सामयिक तथा व्यावहारिक हैं। उनकी वैचारिक गतिशीलता इस खोज में सहायक होती है। उन्होंने स्वयं कहा था कि समय के साथ उनके अपने विचार और समझ परिपक्व हुए हैं, अत: अनेक बार लोगों को उनके कथन में विरोधाभास मिल सकता है। तब बाद में कही गई बात को ही लोग उनका सही कथन माने। निष्कर्ष स्पष्ट है : हर बालक और युवक को जीवनभर अपने को अधिक-से-अधिक शिक्षा, ज्ञान, अनुभव प्राप्त करते रहना है, जीवनपर्यंत सीखते रहना है, अपने व्यक्तित्व का विकास करते रहना है। सीखने के अवसर जीवन में हर तरफ और हर क्षण उपलब्ध होते रहते हैं। इन्हें आत्मसात् करने की इच्छा और समझ आवश्यक है। शिक्षा किस प्रकार से और किस प्रकार के व्यक्ति को तैयार करे, इस पर युवा मोहनदास करमचंद गांधी ने बहुत पहले ही चिंतन प्रारम्भ कर दिया था। १९०९ में लिखी अपनी विश्वप्रसिद्ध पुस्तक ”हिन्द स्वराज” में गांधी ने प्रोफ़ेसर हक्सले को उद्धृत किया है। इसमें यह स्पष्ट होता है कि जिस समाज की संकल्पना वे कर रहे थे उसमें शिक्षा कैसा व्यक्तित्व निर्माण करे, यह शिक्षा कैसी हो और कैसा समाज तैयार करे?

१५० वर्ष पहले मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म हुआ था। इस वर्ष देश उन्हें विशेष रूप से याद कर रहा है।

”उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसके शरीर को ऐसी आदत डाली गई है कि वह उसके बस में रहता है, जिसका शरीर चैन से और आसानी से सौंपा हुआ काम करता है। उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसकी बुद्धि शुद्ध, शांत और न्यायदर्शी है। उसने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा है और जिसकी इन्द्रियाँ उसके बस में हैं, जिसके मन में भावनाएँ बिलकुल शुद्ध हैं, जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरे को अपने जैसा मानता है। ऐसा आदमी ही सच्चा शिक्षित (तालीमशुदा) माना जाएगा, क्योंकि वह कुदरत के कानून के मुताबिक चलता है। कुदरत उसका अच्छा उपयोग करेगी और वह कुदरत का अच्छा उपयोग करेगा।” इसमें यदि भारत की ज्ञानार्जन परंपरा का सूत्र ”यावद्जीवेत अधीयते विप्र:” संदर्भित कर दिया जाए तो और भी स्पष्ट हो जायेगा कि आज सारे विश्व में जीवन पर्यन्त सीखते रहने के कौशल विकसित करने की आवश्यकता पर क्यों जोर दिया जा रहा है। जो अच्छा है, उपयोगी है वह ज्ञान कहीं से भी आये, स्वीकार्य होना चाहिए। साथ-ही-साथ जो ज्ञान इस देश की मिट्टी से निकला है, भारत की अपनी ज्ञानार्जन परंपरा की उपलब्धि है, उसे भी आदर और श्रद्धा के साथ ग्रहण करना चाहिए। गांधी जी ने कहा था : ”मैं नहीं चाहता कि मेरा घर सब तरह खड़ी हुई दीवारों से घिरा रहे और उसके दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर दिए जायें। मैं तो यही चाहता हूँ कि मेरे घर के आस-पास देश-विदेश की संस्कृतियों की हवा बहती रहे।पर मैं यह नहीं चाहता कि उस


अपेक्षाएं

हर युवा पीढ़ी के अपने सपने होते हैं। वह युवा वर्ग जो 1960 में अठारह-पच्चीस के बीच की आयुवर्ग में था और विश्वविद्यालयों में पढ़ रहा था, स्वतंत्रता आन्दोलन के तपे हुए सेनानियों के संपर्क में आने और उन्हें जानने, सुनने और समझाने के किसी भी अवसर को गवाता नहीं था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और शहर में मुझे भी इस अंतराल में इनमें से अनेक को सुनने और जानने के अनेक अवसर मिले वह जेड़+ सुरक्षा का जमाना नहीं था। पंडित नेहरू, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, डॉ० राधाकृष्णन, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, पुरुषोत्तम दास टंडन, आचार्य कृपलानी, गोविन्द बल्लभ पन्त, के०एम० मुंशी तथा अनेक के भाषण और संवाद शायद ही कोई भूल सका हो। इन सभी में एक व्यक्तित्व किसी न किसी प्रकार सदा ही आभासी किन्तु प्रभावशाली व्यक्तित्व बनकर उपस्थित रहता था। गांधी जी हर चर्चा में छाये रहते थे। उनके जीवन की अनेक घटनाओं के उद्धरण भी दिए जाते थे। जब आपस में भाषणों के बाद युवाओं में चर्चा होती थी तो उसमें अंग्रेजी राज, भारत के नेताओं द्वारा जेल में बिताये गए वर्ष, जलियांवाला बाग, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के योगदान भी उभरते थे। कोई भी चर्चा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के बिना तो पूरी हो ही नहीं सकती थी। आजाद हिन्द फौज की चर्चा जोश भर देती थी। भगत सिंह अपने में से एक लगते थे। 1942 में तिरंगा फहराने वाले और सीने में गोली खाकर शहीद होने वाले-लाल पद्मधर सिंह विश्वविद्यालय के हर छात्र के अपनत्व से भरे प्रेरणा स्रोत थे। कभी-कभी इन चर्चाओं में दलगत प्रतिबद्धताओं का प्रवेश भी हो जाता था मगर स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के प्रति श्रद्धा, सम्मान तथा अनुग्रह व्यक्त करने में सभी एकमत रहते थे। यह वह पीढ़ी थी जिसे विश्वास था कि अब इस देश में जातिवाद समाप्त हो जाएगा, बाल विवाह और दहेज प्रथा से मुक्ति मिलेगी, ग्रामीण और किसान भी सम्मान का जीवन जियेगे, गरीबी और भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगे। शिक्षा सब तक पहुंचेगी और एक ऐसे शिक्षित समाज का उदय होगा जिसमें जाति, धर्म, क्षेत्रीयता, तथा अन्य किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा। देश के नागरिकों का एकमत विश्वास था कि नया भारत गाँधी के सपनों का भारत होगा। इन चर्चाओं के बाद कई लोग अपनी रुचि के अनुसार अपनी जानकारी बढ़ाते थे, ताकि अगली चर्चा में और अधिक तर्कपूर्ण तथा तथ्य-आधारित भागीदारी कर सकें। यह उस विश्वविद्यालय की परंपरा थी इसी कारण उसे पूर्व का आक्सफोर्ड कहा जाता था। इन चर्चाओं के आधार पर उस समय इस विश्वविद्यालय से ही सबसे अधिक युवा भारत की प्रशासनिक सेवाओं में चयनित होते थे। अनेकों ने विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाया। उस समय देश में शिक्षा में गुणवत्ता के ह्रास की नहीं केवल श्रेष्ठता की ही चर्चा होती थी।


हवा से मेरे पैर जमीन पर से उखड़ जायें और मैं औंधे मुँह गिर पड़ूँ।” जब कोई भी देश अपनी संस्कृति से अपरिचय के कारण बाहर से आयी चकाचौंध से ही प्रभावित हो जाता है तब निश्चित रूप से उसे सही शिक्षा नहीं मिली होती है। हर देश की शिक्षा प्रणाली की जड़ें उस देश की मिट्टी में गहराई तक जानी चाहियें। ज्ञान कहीं से भी ले सकते हैं मगर आत्मसम्मान तो अपनी विरासत, धरोहर तथा ज्ञानार्जन परंपरा से ही मिलता है। इसका आयात नहीं किया जा सकता है। दुनिया का हर बड़ा और विकसित देश अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा देता है। ऐसे में उन लोगों को क्या कहा जाए जो अपने बच्चों को अपरिचित भाषा में शिक्षा देने को प्रगति का मूल मंत्र मानकर अनजाने ही उन पर कितना अनावश्यक बोझ और तनाव डाल देते हैं।

पीढ़ियों के उत्तरदायित्व

क्या था गांधी के सपनों का भारत? क्या था उनकी संकल्पना का स्वराज? कैसी थी सत्ता चलाने वालों की उनकी संकल्पना? उनके विचारों का आज क्या महत्त्व है और उनसे कितने परिचित हैं? ऐसे अनेक प्रश्न आज भी लगातार उभरते हैं जिनका उत्तर ढूँढ़ने वाले अनेक हैं, मगर उनसे कहीं अधिक वे हैं जो मोहनदास करमचंद गांधी को भुलाना चाहेंगे। युवा सदा ही अपने लिए आदर्श-आइकान ढूँढ़ते हैं। वे असमंजस में पड़ जाते हैं जब वे अपने वरिष्ठों को सत्ता और धनलाभ के लिए मानव-मूल्यों को तहस-नहस करते देखते हैं। समय के साथ ऐसी प्रवृत्तियाँ बढ़ती ही जा रही हैं। स्वराज में सफलता का मूल आधार तो सत्य ही है। इसका सामान्य अर्थ है कि चुनाव पूरी तरह सत्यनिष्ठा पर आधारित है। चुने केवल वे ही जायें जो जनसेवा के लिए ही आगे आये हों, न कि केवल अपने या अपने परिवार के स्वार्थ के लिए। नेता वे ही स्वीकार्य हों जो गांधी जी के इस जंतर को अपना सकने का नैतिक साहस रखते हुए लोगों के समक्ष जनसेवा का स्वीकार्य उदाहरण प्रस्तुत कर चुके हों। ”तुम्हें एक जंतर देता हेूँ जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम् तुम पर हावी होने लगे, तो यह कसौटी अपनाओ, जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा? क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुँचेगा? क्या उससे वह अपने जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा जिनके पेट भूख्ो हैं और आत्मा अतृप्त है? तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम् समाप्त होता जा रहा है। सार्थक, सृर्जनात्मक और संतोषप्रद जीवन जीने के लिए इससे बड़ा मंत्र क्या हो सकता है? जीवन के ऐसे सारगर्भित सूत्र उसी व्यक्ति के उद्गार हो सकते हैं जिसने सम्पूर्ण समर्पण का जीवन जिया हो। गांधी जी के सम्बन्ध में आइंस्टीन का वह वाक्य याद आना स्वाभाविक है कि भविष्य की पीढ़ियाँ शायद ही विश्वास करें कि कोई हाड़-मांस का ऐसा व्यक्ति इस पृथ्वी पर कभी सजीव रहा था। अपनी सफल खोज के आधार पर निर्मित परमाणु बम के हिरोशिमा-नागासाकी पर डाले जाने के बाद आंतरिक रूप से अत्यंत पीड़ित आइंस्टीन ने कहा था कि जीवन में केवल सफलता को ही लक्ष्य न रखकर मूल्य-आधारित जीवन जीने वाला बनो। गांधी जी ने जीवन भर यह प्रयास किया। चौरी-चौरा की हिंसक घटना के बाद सफलता की ओर अग्रसर हो रहे असहयोग आन्दोलन को गांधी ने वापस ले लिया। उनके सहयोगी इस वापसी के पक्ष में नहीं थे। गांधी जी के लिए बड़ा प्रश्न मूल्यों का था न कि सफलता का। उनके सिद्धान्तों और मूल्यों को आत्मसात् करने और उनके प्रचार, प्रसार तथा स्वीकार्यता का कार्य तो उन्हें करना था जिनके हाथ में शासन और सत्ता की बागडोर आई थी और जो सभी सदा ही अपने को गांधी का उत्तराधिकारी घोषित करते रहे। अनेक आज भी ऐसा ही कर रहे हैं। आइंस्टीन के ज्ञान और बुद्धि का दुरुपयोग सत्तासीनों ने लगातार किया और आज विश्व के पास इतने नाभिकीय हथियार हैं कि इस विश्व का विनाश अनेक बार किया जा सकता है। उसी तरह गांधी के ज्ञान, अनुभव और मूल्यों को भुलाकार जो परिणाम सामने आये हैं उन्हें लोग प्रतिदिन देख रहे हैं और भुगत भी रहे हैं।
देश भर में इस समय भी ऐसे बहुत-से लोग हैं जिन्हें अपनी युवावस्था में गांधी के उन सहयोगियों को सुनने तथा उनके साथ बैठने और चर्चा करने के अवसर मिले थे जिन्होंने गांधी के साथ आंदोलनों में हिस्सा लिया था, जेल गए थे उनके मूल्यों पर आधारित जीवन जिया था। १९७०-८० तक वे इसी उहापोह में लगे थे कि इस देश ने गांधी को इतनी शीघ्रता से क्यों भुला दिया! विज्ञान में शीर्ष स्तर पर एकछत्र पहुँचे अल्बर्ट आइंस्टीन मानव सम्बन्धों की समझ में भी उसी स्तर पर पहुँचे हुए थे और इसी कारण वे भविष्य की पीढ़ी के मानस की सही संकल्पना कर सके कि सफलता ही साध्य नहीं है, मानवीय मूल्यों को प्रमुखता मिलनी चाहिए। गांधी जी भी यही कहते और करते रहे। मगर संकल्पना कर सके कि सफलता ही साध्य नहीं है, मानवीय मूल्यों को प्रमुखता मिलनी चाहिए। गांधी भी यही कहते और करते रहे। मगर तीसरी पीढ़ी के आते-आते ही केवल भौतिक संसाधनों के संग्रहण पर ही सारे प्रयास केन्द्रित हो जायेंगे, ऐसा भान शायद उन्हें भी नहीं रहा होगा। आज भारत के २१वीं सदी के युवा यह विश्वास कैसे कर सकेंगे कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम का महानायक यह भी कहता था कि ”मैं रेल में तीसरे दर्जे में सफर इसलिए करता हूँ क्योंकि चौथा दर्जा होता ही नहीं है।” वह इतना कहकर ही नहीं रुके, आगे बढ़े,” बिना तीसरे दर्जे में यात्रा किये कोई इस दर्जे के मुसाफिरों की तकलीफ समझ ही नहीं सकता।” अनेक बार चयनित प्रतिनिधियों और मंत्रियों के रहन-सहन, या लगातार बढ़ रहे विशेषाधिकारों पर चर्चा होती है। तब गांधी को इनमें से कोई भी याद नहीं करना चाहेगा क्योंकि वे कह गए थे, ”इतना समझ लें कि कोई मंत्री बँधी हुई मर्यादा तक तनख्वाह लेने के लिए बंधा नहीं है।” जनप्रतिनिधियों से वे क्या चाहते थे उसे भी यों कह गए, ”पैसेदार लोग यदि प्रांतीय धारासभाओं के सदस्य या मंत्री पद पर काम करते हुए तनख्वाह लें, तो हँसी की बात होगी!” आज कौन यह याद रखना चाहेगा कि गांधी ने चपरासी और मंत्री के बारे में कहा था, ”मैं चाहूँगा कि चपरासी मंत्री पद के लायक बने और तो भी अपनी जरूरत चपरासी जितनी रखे। गांधी ने बहुत कुछ लिखा, बार-बार लिखा, समझाया, लोग तैयार किये। मगर उनमें से अधिकांश अकल्पनीय तेजी से उनका सिखाया सब भूल गए। गोपालकृष्ण गोखले की सलाह पर उन्होंने भारत भ्रमण कर इस देश को समझने का प्रयास किया था। उन्होंने गरीबी को देखा, उसे जीने का निर्णय लिया! उन्होंने भारत की कमजोरी और ताकत को भी जाना और अनुभव किया। उन्होंने कहा—”भारत की हर चीज मुझे आकर्षित करती है। सर्वोच्च आकांक्षाएँ रखने वाले किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब उसे भारत में मिल सकता है।” उन्होंने यह भी बताया कि वह कैसे मिल सकेगा, एक वाक्य में उन्होंने सम्पूर्ण भारत के पुन: उभरने का मन्त्र दिया, ”भारत अपने मूल रूप में कर्मभूमि है, भोग भूमि नहीं।”
वैश्वीकरण की चकाचौंध से प्रभावित सभी लोग गांधी को भुलाना चाहेंगे। धनाढ्य वर्ग और सत्ता सुख भोग चुका संपन्न वर्ग इसमें अग्रणी होगा क्योंकि वे भी जानते हैं कि रास्ता तो गांधी का ही सही है मगर वे जिस अपरिमित संग्रह और धनार्जन के मार्ग पर चल रहे हैं उससे बाहर आने में अक्षम हैं। उनकी स्थिति वही है जिसका अत्यंत सारगर्भित वर्णन महाभारत में दुर्योधन के मुंह से कहा गया है, ‘जानामि धरमं च मे प्रवृत्ति: अधरमं न च मे निवृत्ति:’। गांधी को जानना आवश्यक है मगर केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है। आगे का रास्ता भी गांधी स्पष्ट कर गए थे, ”मेरा विश्वास है कि भारत का ध्येय दूसरे देशों के ध्येय से कुछ अलग है…भारत अपने आत्मबल से सबको जीत सकता है।” ”इतिहास इस सच्चाई के जितने चाहे प्रमाण दे सकता है कि पशुबल आत्मबल की तुलना में कुछ नहीं है। कवियों ने इस बल की विजय के गीत गाये हैं और ऋषियों ने इस विषय में अपनें अनुभवों का वर्णन करके उसकी पुष्टि की है। वे पाश्चात्य सभ्यता के ”विचारहीन और विवेकहीन” अनुसरण के विरोध में थे जो यह मानकर की जाती है कि एशिया-निवासी तो पश्चिम से आने वाली हर चीज की नकल करने जितनी ही योग्यता रखते हैं।” भारत की नई पीढ़ी को यह जानना और समझना है कि अपरिग्रह केवल किताबों में लिखा कोई सूत्र या मंत्र नहीं था, उसे जीवन में उतारकर अत्यंत सृर्जनशील और संतुष्टि का जीवन जिया जा सकता है। यह तभी होगा जब राष्ट्र गांधी से नई पीढ़ी को परिचित कराने के उत्तरदायित्व का निर्वाह करे। पहले यह स्वीकार करना होगा कि भारत के समेकित विकास और प्रगति का रास्ता गांधी को भुलाकार नहीं ढूँढ़ा जा सकता है।

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