Education

राष्ट्र-निर्माण में शिक्षा एवं शिक्षक की भूमिका

यह तथ्य किसी से नहीं छिपा है कि राष्ट्र-निर्माण में शिक्षा का सर्वाधिक महत्त्व है, जैसी शिक्षा-व्यवस्था होगी, जैसी शिक्षा की रीति-नीति होगी, जैसी शिक्षण पद्धति होगी वैसा ही बालक बनेगा, जैसा बालक बनेगा वैसा ही समाज बनेगा, जैसा समाज बनेगा वैसा ही राष्ट्र का स्वरूप निर्धारित होगा क्योंकि आज के बालक ही कल के व्यवस्थापक, इन्जीनियर, डॉक्टर, अध्यापक, व्यापारी, व्यवसायी, वकील, जज, प्रशासनिक अधिकारी, लेखक बनेंगे। ये जैसे बनेंगे वैसा ही राष्ट्र बनेगा।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि जर्मनी को हिटलर ने फासिस्ट (तानाशाह एवं उग्रराष्ट्र) बनाने के लिए शिक्षा में ही परिवर्तन किया, शिक्षा को ही परिवर्तन का माध्यम बनाया। इतिहास में से हार के पन्ने निकालकर देश के शौर्य, पराक्रम, वीरता, बहादुरी, साहस की गौरव गाथा कहने वाले पन्ने जोड़े।
इटली में मुसोलिनी ने भी ऐसा ही किया।
रूस व चीन में साम्यवाद के प्रति जो अटूट निष्ठा व गहरा विश्वास पाया जाता है वह भी शिक्षा की ही देन हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के बरबाद हो जाने के बाद जापान के राजा ने कहा था कि यदि जापान का पुन:निर्माण चाहते हो तो लगा दो सारी शक्ति शिक्षा के उत्थान पर; ऐसी शिक्षा जो आपको चरित्रवान, देशभक्त, निष्ठावान व ईमानदार नागरिक’ दे सके। अन्तत: ऐसा ही हुआ और आज जापान का उदाहरण हमारे सामने है, वहाँ का रिटायर्ड वृद्ध व्यक्ति भी देश के लिए खूब महनत करता है। घर पर बैठा हुआ भी कुछ-न-कुछ कार्य करता है, खाली नहीं बैठता।
ब्रिटेन के भूतपूर्व प्रधानमंत्री ने संसद में कहा था—‘‘The fate of the nation depends upon its education.’’ इसी विचारधारा के अनुरूप वहाँ की शिक्षा-व्यवस्था की गई। परिणाम आज ब्रिटेन एक सफल एवं विकसित राष्ट्र के रूप में हमारे सामने है।
अमेरिका एक सफल, सशक्त, विकसित एवं सर्वशक्तिमान राष्ट्र है, इसका कारण भी वहाँ की शिक्षा व्यवस्था ही है। विश्व के अनेक देशों के छात्र/छात्राएँ वहाँ पढ़ने जाते हैं और अनेक पढ़ने जाने के लिए लालायित रहते हैं, इसका कारण भी वहाँ की उत्कृष्ट शिक्षा-व्यवस्था ही है।
इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि हम वैदिक काल में जगत्गुरु थे। हमारा देश सोने की चिड़िया कहलाता था। हमारा देश ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी ज्ञान, गणितीय ज्ञान, चिकित्सीय ज्ञान एवं आध्यात्मिक ज्ञान में सारी दुनिया का मार्गदर्शन करता था। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम अग्रणी थे। यहाँ तक्षशिला, नालन्दा एवं विक्रयशिला जैसे विश्वविद्यालय थे जिनमें दुनिया भर के लोग पढ़ने आते थे और यहाँ से ज्ञान प्राप्त कर दुनिया में जाकर उसको बाँटते थे। उसका प्रचार-प्रसार करते थे। जिस पर हमें आज भी गर्व है। इसके कारण थे—यहाँ की शिक्षण-व्यवस्था उत्कृष्ट थी और ऐसे लोगों के हाथों में थी जो चरित्र एवं चिन्तन की दृष्टि से उत्कृष्ट थे, जो स्वयं के प्रति ईमानदार रहते हुए अपने पेशे के प्रति निष्ठावान एवं ईमानदार थे।
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद हमने एक सबल, सशक्त, समुन्नत राष्ट्र का निर्माण करने की कल्पना की थी, उसी समय हमने यह भी सोचा था कि हम असमानता, अन्याय, ऊँच-नीच, भेद-भाव एवं शोषणविहीन समाज की स्थापना कर सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक रूप से प्रगति करेंगे और नैतिक एवं चरित्रिक रूप से भी सबल व सशक्त होंगे; परन्तु हमारी आशाएँ, अपेक्षाएँ, आकांक्षाएँ निर्मूल साबित हुई।
उसी समय महात्मा गांधी जी ने पं० जवाहरलाल नेहरू जी को भेजे गए एक पत्र में अपने मन की चिन्ता का अहसास कराते हुए लिखा था कि आजाद भारत को हम कैसा बनाना चाहते हैं, इसके साथ ही उन्होंने एक सवाल उठाया था कि सड़क, बिजली, कल-कारखाने, अस्पताल, स्कूल बनाने के साथ-साथ सबसे बड़ा सवाल है कि आजाद भारत में हम किस तरह का नया गाँव और गाँव में रहने वाले यूथ को कैसा बनाना चाहते हैं? आजादी के बाद तारकोल की सड़कें बनी महानगरों में उन पर नियॉन लाइट चमकने लगी, अस्पताल बने, कल-कारखाने स्थापित हुए, नहरे बनी, बाँध बने, रेलवे लाइन बिछीं, बहुमन्जिले भवन बने; लेकिन राजनीति, अर्थनीति और अफसरशाही के गठजोड़ में भ्रष्टाचार, अपहरण, अपराध, कामचोरी के बियाबान में समाज की चेतना मूच्र्छित हो गई और आदमी कहीं खो गया।
आज जरूरत है समाज की खोई हुई चेतना को जगाने की और खोए हुए आदमी को तलाशने की।
दोस्तो! यह सत्य है कि जीवित, जागृत एवं ज्वलन्त समाज की रचना कल-कारखानों, बाँधों, ऊँची-ऊँची इमारतों, पुलों से नहीं बल्कि व्यक्ति-निर्माण से होगी। व्यक्ति-निर्माण किए बिना वैभवशाली भारत की पुनस्र्थापना का चिन्तन दिव्य स्वप्न ही होगा। व्यक्ति का निर्माण करेगा ज्ञानवान, निष्ठावान चरित्रवान एवं कत्र्तव्यनिष्ठ अध्यापक, समर्पित एवं धर्मनिष्ठ अध्यापक, ऐसा अध्यापक जो छात्रों को ज्ञान-पिपासु, जिज्ञासु बनाए और उनमें ज्ञान प्राप्त करने की भूख पैदा करे।

यह सत्य है कि जीवित, जागृत एवं ज्वलन्त समाज की रचना कल-कारखानों, बाँधों ऊँची-ऊँची इमारतों पुलों से नहीं बल्कि व्यक्ति निर्माण से होगी।

एक बार की बात है इब्राहिम लिंकन ने अपने बच्चे का विद्यालय में प्रवेश कराया। विद्यालय में प्रवेश कराकर जब वो चलने लगे तो वहाँ के प्रधानाचार्य ने उसने कहा— Sir, I will try to provide the best education to your child, Ebrahim Lincon said, I am not come here to request you to provide the best education to my child. I request you to create a lust of learning in my child. A lust of learning is far-far better then to provide the best education.
(इब्राहिम लिंकन ने भी विद्यालय के प्राचार्य से अपने बच्चे के मन में ज्ञान की भूख पैदा करने का निवेदन किया था)
शिक्षक सम्पूर्ण शिक्षा-व्यवस्था की रीढ़ और सम्पूर्ण समाज का वस्तुशिल्पी है। उसके आचार-विचार, संस्कारों, चिन्तन, चरित्र और वेश-भूषा व ज्ञान का प्रभाव पहले छात्र पर, फिर समाज पर और फिर पूरे राष्ट्र पर पड़ता है और वह अन्त समय तक रहता है। इसलिए एक विद्वान ने कहा है—“A Teacher effects eternity, he can never tell, where is his influence stop.”
एक शिक्षक का प्रभाव अन्तहीन है और वह जीवनपर्यन्त चलता है। यही कारण है कि जिन शिक्षकों ने हमें Primary Stage एवं ऊपर के स्तर पर पढ़ाया उनकी शिक्षाओं एवं संस्कारों, आचार-विचारों एवं उनकी वेश-भूषा का प्रभाव हमारे जीवन में आज तक है और हमेशा रहेगा। जिसे हम बच्चों में आज तक बाँट रहे हैं और आगे भी बाँटते रहेंगे। यदि आपकी कक्षा में 50 बच्चे हैं तो 100 आँखें आपको विभिन्न कोणों (Angles) से देख रही होती हैं, आपकी वेश-भूषा, आपके विचार, आपका ज्ञान, आपके पढ़ाने का तरीका, आपका उनके प्रति व्यवहार। वो आपको अपनी कसौटी पर कसकर देख रहे होते हैं। इसलिए शिक्षक को चाहिए कि वो अपने विषय की पाठ्यवस्तु को इतना सहज, सरल, सुगम, सुरुचिपूर्ण, सर्वग्राह्य एवं आनन्ददायक बनाकर पढ़ाए कि बच्चों को यह भी पता न चले कि उन्होंने अपना पाठ कब में याद कर लिया। शिक्षक अपने विषय की पाठ्यवस्तु को पढ़ाने के साथ-साथ बच्चों में नैतिक और चारित्रिक गुणों का विकास भी करे, साथ ही उनमें देशप्रेम, अनुशासन, सर्वधर्म समभाव, विभिन्नता में एकता, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को विकसित करे।
दोस्तो! बहनो! गुरूर ब्रह्मा, गुरूर विष्णु की संकल्पना को समाज ने भले ही नकार दिया हो परन्तु आज भी नन्हे-मुन्ने बच्चों के मन और मस्तिष्क में उसका गुरु ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी है। उसके वाक्य ही ब्रह्म वाक्य हैं और अकाट्य सत्य हैं। उसके शब्द ही अन्तिम सत्य हैं। यही कारण है कि जब अभिभावक अपने बच्चे की कॉपी लेकर उसमें किए गए गलत प्रश्न को अपने पेन अथवा पेन्सिल से ठीक करने की कोशिश करता है तो बच्चा उसका हाथ थाम लेता है और कहता है कि आप इसे ठीक नहीं करेंगे, यह तो मेरी मैडम/सर ने कराया है, यह तो ठीक है। कैसा गजब का विश्वास और गहरी आस्था बच्चे के मन में अपने सर अथवा मैडम के प्रति है, परन्तु जब वही बालक बड़ा होता है और सब बातों से रूबरू होता है तो फिर वही बालक क्यों अपने अध्यापक/शिक्षक के विरोधी सुर वाला हो जाता है, क्यों उनको Paid Servant अथवा Guide का Substitute मानने लगता है। इन सब बातों पर अध्यापकों को गहनता से विचार करना होगा, अपना आत्म-चिन्तन, आत्म-विश्लेषण आत्म-मन्थन करना होगा और आत्म-मनन कर ऐसे ठोस निर्णय लेने होंगे जिससे उसके प्रति आस्था और विश्वास व सम्मान का संकट न गहराए। हमें अपने आचरण एवं व्यवहार में ऐसे परिवर्तन करने होंगे कि हम समाज के Role-model बन सकें, भारतीय जनमानस और युवकों की श्रद्धा के केन्द्रबिन्दु बन सकें और युवा पीढ़ी उससे प्रेरणा पाकर अपने जीवन को सफल बना सके।

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