ज्ञान की प्राप्ति के लिए केवल एक ही मार्ग है और वह है एकाग्रता। मन की एकाग्रता ही शिक्षा का सम्पूर्ण सार है। ज्ञानार्जन के लिए निम्नतम श्रेणी के मनुष्य से लेकर उच्चतम योगी तक को इसी एक मार्ग का अवलम्बन करना पड़ता है। रसायन विज्ञानी अपनी प्रयोगशाला में अपने मन की सारी शक्तियों को एकाग्र करके एक ही केन्द्र में स्थिर करता है और तत्त्वों (Elements) पर लगाता है—उससे तत्त्व विश्लेषित हो जाते हैं और उसे ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। ज्योतिषी अपने मन की शक्तियों को एकाग्र करके एक ही केन्द्र पर लाता है और दूरदर्शी यन्त्र के द्वारा उन्हें अपने विषयों पर लगाता है, इस प्रकार तारागण और ग्रह-समुदाय उसके सामने चले आते हैं और अपना रहस्य उसके पास खोलकर रख देते हैं। चाहे विद्वान अध्यापक हो, चाहे मेधावी छात्र हो, चाहे अन्य कोई भी हो, यदि वह किसी विषय को जानने की चेष्टा कर रहा है, तो उसे उपयुक्त प्रथा से ही काम लेना पड़ता है।
एकाग्रता की शक्ति जितनी अधिक होगी, ज्ञान की प्राप्ति भी उतनी ही अधिक होगी। चर्मकार यदि अधिक एकाग्रचित्त होगा, तो जूता अधिक अच्छा साफ करेगा। रसोइया एकाग्रचित्त होने से अधिक अच्छा भोजन पकाएगा। पैसा कमाने में अथवा ईश्वर की आराधना करने में या और भी कोई कार्य करने में जितनी अधिक एकाग्रता होगी, वह कार्य उतना ही अधिक अच्छी तरह सम्पन्न होगा। यही एक खटखटाहट है, यही एक आघात है, जो प्रकृति के द्वारों को खुला कर देता है और ज्ञानरूपी प्रकाश को बाहर फैलाता है।
नब्बे प्रतिशत विचारशक्ति को साधारण मनुष्य व्यर्थ खो देता है और इसी कारण वह सदा बड़ी-बड़ी भूलें किया करता है। अभ्यस्त मन कभी भूल नहीं करता। मनुष्यों और पशुओं में मुख्य भेद केवल चित्त की एकाग्रता-शक्ति का तारतम्य ही है। पशु में एकाग्रता की शक्ति बहुत कम होती है। जिन्होंने पशुओं को सिखाने का काम लिया है, वे इस कठिनाई का अनुभव करते हैं कि पशु को जो कुछ सिखाया जाता है, उसे वह सदा भूल जाया करता है। पशु अपना मन अधिक समय तक किसी बात पर स्थिर नहीं रख सकता। बस यहीं पर मनुष्यों और पशुओं में अन्तर है। मनुष्य-मनुष्य का भेद भी उनकी एकाग्रता-शक्ति के इस तारतम्य से होता है। सबसे निम्न मनुष्य की उच्चतम पुरुष के साथ तुलना करो। उन दोनों में भेद केवल एकाग्रता की मात्रा में है।
पहले अपने आपमें विश्वास रखो। यह जान लो कि भले ही एक व्यक्ति छोटा-सा बुलबुला हो और दूसरा पर्वत के समान ऊँची तरंग, पर बुलबुले और तरंग दोनों के ही पीछे वही अनन्त सागर है।
किसी भी प्रकार के कार्य की सफलता इसी पर निर्भर करती है। कला, संगीत आदि में अत्युच्च प्रवीणता इसी एकाग्रता का फल है। जब मन को एकाग्र करके उसे अपने ही ऊपर लगाया जाता है, तब हमारे भीतर का सब कुछ हमारा दास बना जाता है, स्वामी नहीं रह जाता। यूनानियों ने अपनी एकाग्रता का प्रयोग बाह्य संसार पर किया और इसके फलस्वरूप उन्हें कला, साहित्य आदि में पूर्णता प्राप्त हुई। हिन्दुओं ने अन्तर्जगत् पर, आत्मा के अदृष्ट प्रदेश पर अपने चित्त को एकाग्र किया और इस तरह योगशास्त्र की उन्नति की।
विश्व अपना रहस्य खोल देने को तैयार है, केवल हमें यही जानना है कि इसके लिए किस तरह दरवाजा खटखटाया जाए। आवश्यक आघात कैसे किया जाए। इस खटखटाने या आघात करने की शक्ति और दृढ़ता एकाग्रता से प्राप्त होती है।
एकाग्रता की शक्ति ही ज्ञान के खजाने की एकमात्र कुंजी है। अपनी वर्तमान शारीरिक अवस्था में हम बड़े ही विक्षिप्तचित्त हो रहे हैं। हमारा मन इस समय सैकड़ों ओर दौड़-दौड़कर अपनी शक्ति नष्ट कर रहा है। जब कभी मैं व्यर्थ की सब चिन्ताओं को छोड़कर ज्ञान-लाभ के उद्देश्य से मन को किसी विषय पर स्थिर करने का प्रयत्न करता हूँ त्योंही चिन्ताएँ मन में एक साथ आकर उसको चंचल कर देती हैं। किस प्रकार से इन्हें रोककर मन को वश में लाया जाए, यही राजयोग का एकमात्र आलोच्य विषय है। ध्यान का अभ्यास करने से मानसिक एकाग्रता प्राप्त होती है।
मैं तो मन की एकाग्रता को ही शिक्षा का यथार्थ सार समझता हूँ—ज्ञातव्य विषयों के संग्रह को नहीं। यदि मुझे एक बार फिर से अपनी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिले, तो मैं विषयों का अध्ययन नहीं करूँगा। मैं तो एकाग्रता की ओर मन को विषय से अलग कर लेने की शक्ति को बढ़ाऊँगा, और तब साधन या यन्त्र की पूर्णता प्राप्त हो जाने पर इच्छानुसार विषयों का संग्रह करूँगा।
बारह वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को शक्ति प्राप्त होती है। पूर्ण ब्रह्मचर्य से प्रबल बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्ति उत्पन्न होती है। वासनाओं को वश में कर लेने से उत्कृष्ट फल प्राप्त होते हैं। काम-शक्ति को आध्यात्मिक शक्ति में परिणत कर लो। यह शक्ति जितनी ही प्रबल होगी, उससे उतना ही अधिक कार्य हो सकेगा। जल का शक्तिशाली प्रवाह ही द्रवचालित खनन-यंत्र को चला सकता है। इस ब्रह्मचर्य के अभाव के कारण हमारे देश में प्रत्येक वस्तु नष्टप्राय हो रही है। कड़े ब्रह्मचर्य के पालन से कोई भी विद्या अल्पकाल में ही अवगत हो सकती है। एक ही बार सुनी या जानी हुई बात को याद रखने की अचूक स्मृति-शक्ति आ जाती है। ब्रह्मचारी के मस्तिष्क में प्रबल कार्यशक्ति और अमोघ इच्छाशक्ति रहती है। पावित्र्य के बिना आध्यात्मिक शक्ति नहीं आ सकती। आध्यात्मिक नेतागण अखण्ड ब्रह्मचारी रहे हैं और इसी से उन्हें शक्ति प्राप्त हुई थी।
प्रत्येक बालक को पूर्ण ब्रह्मचर्य का अभ्यास करने की शिक्षा देनी चाहिए, तभी उनमें श्रद्धा और विश्वास की उत्पत्ति होगी। सदैव सभी अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है। अपवित्र कल्पना उतनी ही बुरी है, जितना अपवित्र कार्य। ब्रह्मचारी को मन, वाणी और कर्म से शुद्ध रहना चाहिए।
एक बार फिर से अपने में सच्ची श्रद्धा की भावना लानी होगी, आत्मविश्वास को पुन: जगाना होगा, तभी हम उन सारी समस्याओं को धीरे-धीरे सुलझा सकेंगे, जो आज हमारे सामने हैैं। हमें आज इसी श्रद्धा की आवश्यकता है। मनुष्य-मनुष्य में इसी श्रद्धा का तो अन्तर है, अन्य किसी वस्तु का नहीं। वह श्रद्धा ही है जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को छोटा बनाती है। मेरे गुरुदेव कहा करते थे, जो अपने को दुर्बल समझता है, वह दुर्बल ही हो जाता है और यह बिल्कुल सच है। तुममें यह श्रद्धा आनी ही चाहिए। पाश्चात्य जातियों में तुम जो कुछ भौतिक शक्ति का विकास देखते हो, वह इसी श्रद्धा का परिणाम है; कारण, उन्हें अपने बाहुबल पर विश्वास है; और यदि तुम आत्म-बल पर विश्वास रखो तो परिणाम और भी कितना अधिक न होगा।
यह एक बात अच्छी तरह समझ लो कि जो मनुष्य दिन-रात सोचता रहता है कि मैं कुछ भी नही हूँ, उससे हम कोई आशा नहीं रख सकते हैं। यदि कोई दिन-रात यही सोचता रहे कि मैं दीन-हीन हूँ, नाचीज हूँ, तो वह सचमुच नाचीज बन जाएगा। अगर तुम सोचो कि मैं कुछ हूँ, मुझमें शक्ति है, तो सचमुच तुममें शक्ति आ जाएगी। यह एक महान सत्य है, जिसका तुम्हें स्मरण रहना चाहिए। हम उस सर्वशक्तिमान प्रभु की सन्तान हैं। उस अनन्त ब्रह्माग्नि की चिनगारियाँ हैं। हम नाचीज कैसे हो सकते हैं। हम सब कुछ हैं, सब कुछ करने को तैयार हैं और सब कुछ कर सकते हैं। हमारे पूर्वजों में ऐसा ही दृढ़ आत्मविश्वास था। इसी आत्मविश्वासीरूपी प्रेरणा-शक्ति ने उन्हें सभ्यता की ऊँची-से ऊँची सीढ़ी पर चढ़ाया था और अब यदि अवनति हुई है, यदि कोई दोष आ गया है तो तुम देखोगे, इस अवनति का आरम्भ उसी दिन से हो गया जब से हम अपने इस आत्मविश्वास को खो बैठे।
इस श्रद्धा या आत्मविश्वास के सिद्धान्त का प्रचार करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। मैं इस बात को दुबारा कहता हूँ कि यह आत्मविश्वास मानवता का एक सबसे शक्तिशाली अंंग है। पहले अपने आपमें विश्वास रखो। यह जान लो कि भले ही एक व्यक्ति छोटा-सा बुलबुला हो और दूसरा पर्वत के समान ऊँची तरंग, पर बुलबुले और तरंग दोनों के ही पीछे वही अनन्त सागर है। वही अनन्त सागर मेरा और तुम्हारा दोनों का आधार है। जीवन-शक्ति और आध्यात्मिकता का वह अनन्त महासागर जैसा मेरा है वैसा ही तुम्हारा भी। अत: हे भाइयो! तुम अपनी सन्तानों को उन्हें जन्मकाल से ही इस महान जीवनप्रद उच्च और उदात्त तत्त्व की शिक्षा देना शुरू कर दो।